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________________ ( ११ ) श्री जिनविजय जी विराजमान थे। जिनसे इन दोनों लोगों ने प्राकृत भाषा और जैन आगमों का गहन अभ्यास किया। शांति निकेतन में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के विश्व वात्सल्य के वातावरण में रहते हुए दलसुख भाई को अपना सर्वांगीण विकास करने का श्रेष्ठतम अवसर मिला, जिसका इन्होंने भरपूर लाभ उठाया । १९३४ ई० में विद्याभ्यास पूर्ण कर श्री दलसुख भाई ने शांतिनिकेतन छोड़ दिया। इस प्रकार इन १४ वर्षों में - ७ वर्ष अनाथाश्रम में तथा ७ वर्ष, बीकानेर, जयपुर, ब्यावर और शांति निकेतन में व्यतीत कर दलसुख भाई अनाथाश्रम के एक विद्यार्थी से एक जैन विद्वान् के रूप में प्रतिष्ठित हुए । इसी अध्ययन काल के दौरान सन् १९३२ में दलसुखभाई का विवाह २२ वर्ष की अवस्था में सुश्री मथुरा बहन (मथुरा गौरी) के साथ सम्पन्न हुआ । विवाह हो जाने एवं विद्याध्ययन पूर्ण होने पर दलसुखभाई सन् १९३४ में बम्बई में स्थानकवासी जैन कान्फ्र ेन्स के मुख-पत्र जैन प्रकाश के साथ संबद्ध हो गये । वहाँ इन्हें ४० रुपया प्रतिमाह वेतन मिलता था और लगभग इतनी ही राशि उन्हें प्राइवेट ट्यूशन से मिल जाती थी । यद्यपि उन्हें आर्थिक दृष्टि से कोई कठिनाई न थी, परन्तु अध्ययनशील दलसुख भाई का मन इन कार्यों में नहीं लगा और ऐसा कोई अवसर नहीं मिल रहा था, जिसमें इनकी असीम प्रतिभा का उपयोग हो सके । १९३६ ई० में प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल जी संघवी का बनारस से बम्बई में पधारना हुआ । दलसुख भाई उनसे मिले, और अपने मन की बात कही । पंडित जी ने उन्हें वाराणसी आने की सलाह दी, जिसे स्वीकार कर वे तत्काल यहाँ पहुँच गये । यहाँ उन्होंने पंडित जी के लिये ग्रन्थ वाचक का कार्य किया और वेतन निर्धारित हुआ ३५ रुपया महीना । ८० रुपये महीने की आय छोड़कर केवल ३५ रुपये महीने की नौकरी सहर्ष स्वीकार करना दलसुख भाई मालवणिया जैसे निःस्पृह, निर्लोभी एवं विद्यारसिक व्यक्ति के लिये ही संभव था । पं० सुखलाल संघवी एक महान् विद्या साधक थे । पूर्वाग्रह, साम्प्रदायिक कट्टरता, अंधश्रद्धा आदि से पूर्णतया मुक्त सत्यान्वेषी प्रकृति के विद्वान् थे और इसी प्रकार की विचारधारा वाले लोगों को पसन्द करते थे । दलसुख भाई उनकी इस प्रकृति के अत्यन्त अनुकूल निकले । योग्य गुरु को योग्य शिष्य की तलाश थी, जो उन्हें अब मिल गया । धीरे-धीरे दलसुख भाई से उनका सम्बन्ध शिष्य से मित्र और अन्त में पिता-पुत्र के रूप में परिणत हो गया । पंडित सुखलाल जी के पास ग्रन्थ वाचक के रूप में दलसुख भाई को अनेक धर्म ग्रन्थों के पढ़ने का अवसर मिला, इससे उनकी प्रतिभा में निखार आता गया । इन्होंने पंडित जी के साथ कई जटिल ग्रंथों का संपादन-संशोधन किया तथा स्वतंत्र रूप से ग्रन्थों के सम्पादन का कार्य भी प्रारम्भ किया । प्रमाण मीमांसा के संशोधन-संपादन हेतु पंडित जी का मुनि कांतिविजय जी और पुण्य विजय जी से परिचय हुआ जिसका लाभ दलसुखभाई को मिला । १९४४ में पं० सुखलाल जी जब काशी हिन्दू विद्यालय से सेवानिवृत्त हुए तो दलसुखभाई उनके स्थान पर जैन चेयर पर प्रोफेसर नियुक्त हुए । विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डा० राधाकृष्णन् युवा विद्वान् दलसुख भाई से अत्यन्त प्रभावित थे । दलसुख भाई के पास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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