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________________ ( १० ) बल्कि यहाँ के अन्य कार्यों को भी सम्पादित करना होता था । इसके बदले उनके लिये मासिक वेतन नियत था । दलसुखभाई के सांसारिक पक्ष के चाचा मुनि श्री मगनलाल जी ने उन्हें इस कालेज में प्रवेश दिलाने का निश्चय किया, परन्तु दलसुखभाई के पास बीकानेर पहुँचने के लिये मार्गव्यय भी न था । स्थानीय मंडल ने मार्गव्यय का प्रबन्ध किया और अन्ततोगत्वा दलसुखभाई ने इस कालेज में प्रविष्ट होकर जैन विद्या का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया । बीकानेर में इस समय एक जैन पाठशाला भी थी, जिसका संचालन श्री भैरोदान सेठिया द्वारा होता था । इस पाठशाला में जैन पंडितों द्वारा अध्यापन कार्य सम्पन्न होता था, जिसका लाभ ट्रेनिंग कालेज के विद्यार्थियों को भी मिलता रहा । इस कालेज के छात्रों को प्रायः जहाँ-जहाँ मुनि ठहरते, उनके पास भी जाकर अध्ययन करना होता था, इसीलिए इस कालेज को ट्रेनिंग कालेज के स्थान पर ट्रैवेलिंग कालेज भी कहा जाता रहा । सन् १९२८-२९ में दलसुखभाई जयपुर आये और यहाँ ट्रेनिंग कालेज में अभ्यास किया । सन् १९२९-३० में ये जैन गुरुकुल, ब्यावर में प्रविष्ट हुए । शतावधानी मुनि श्री रत्नचन्द जी महाराज स्थानकवासी जैन समाज के अति प्रभावशाली एवं विद्वान् मुनि थे । उनका १९३० का चातुर्मास कच्छ प्रान्त के अंजार नामक स्थान में हुआ । जैन गुरुकुल की ओर से श्री दलसुख भाई तथा कुछ अन्य छात्र मुनि जी के पास अध्ययनार्थ गये और वहाँ जैन साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया । चातुर्मास की समाप्ति पर छात्रगण पुनः ब्यावर वापस आ गये । सन् १९३१ में दलसुखभाई ने बंगाल संस्कृत परिषद, कलकत्ता से न्यायतीर्थ की परीक्षा उत्तीर्ण की । इसी वर्ष इन्हें जैन गुरुकुल, ब्यावर की ओर से जैन दर्शन विशारद की उपाधि से सम्मानित किया गया । इस प्रकार बीकानेर, जयपुर और व्यावर में दलसुखभाई ने ४ वर्ष व्यतीत किये। इन वर्षों में उन्होंने संस्कृत, प्राकृत भाषाओं तथा धर्मग्रन्थों का गहन अध्ययन कर इनमें निपुणता प्राप्त कर ली । दूरदर्शी श्री दुर्लभ जी त्रिभुवनदास झवेरी इनकी कुशाग्रबुद्धि से अत्यन्त प्रभावित थे। उन्होंने दलसुखभाई को श्री शांतिलाल वनमाली सेठ के साथ अहमदाबाद में पं० बेचरदास जी दोशी के पास अध्ययनार्थ भेज दिया। पं० बेचरदास जी दोशी जैन आगम साहित्य और प्राकृत विद्या के शीर्षस्थ विद्वान् थे । ऐतिहासिक दृष्टि से आगमों को समझने-समझाने की उनकी अपनी मौलिक दृष्टि तथा पंथ एवं दुराग्रहों से दूर रहते हुए सत्यान्वेषण करना उनकी विशेषता थी, जिसका प्रभाव दलसुखभाई पर भी पड़ा। अहमदाबाद में ही दलसुखभाई प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल जी संघवी के सम्पर्क में भी आये । १९३२ में पं० बेचरदास जी अपनी राष्ट्रीय भावनाओं के कारण कारागार में डाल दिये गये और दलसुखभाई भी अपना अध्ययन पूर्ण कर वापस जयपुर लौट आये । १९३२ में ही सेठ श्री दुर्लभ जी झवेरी की प्रेरणा और सहायता से दलसुख भाई और शांतिभाई शांति निकेतन पहुँचे और वहाँ विधुशेखर भट्टाचार्य जैसे आदर्श शिक्षक के पास बौद्धदर्शन और पालि भाषा का अभ्यास किया। शांति निकेतन में इस समय जैन विद्या के महान् तपस्वी, ध्येयनिष्ठ तथा जैन आगम साहित्य एवं प्राकृत भाषा के मर्मज्ञ आचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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