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________________ डा० सुदर्शन लाल जैन तत्त्व-संकथन)। इसमें गणधर, चक्रवर्ती और इन्द्र के द्वारा प्रश्न करने पर दश धर्म का कथन या जीवादि वस्तु का कथन है । अथवा ज्ञातृ, तीर्थंकर, गणि, चक्रि, राजर्षि, इन्द्र आदि की धर्मानुकथादि का कथन है। (ग) वर्तमान रूप छठे से ग्यारहवें तक के कथा-प्रधान अङ्ग-ग्रन्थों में सुधर्मा और जम्बू स्वामी के लिए अनेक विशेषणों का प्रयोग किया गया है। क्रिया पद अन्यपुरुष में है जिससे लगता है कि इनका रचयिता स्वयं सुधर्मा या जम्बू स्वामी नहीं है अपितु उनको प्रमाण मानकर किसी अन्य व्यक्ति ने रचना की है। . इस कथा-ग्रन्थ की मुख्य और अवान्तर कथाओं में आई हुई अनेक घटनाओं से तथा विविध प्रकार के वर्णनों से तत्कालीन इतिहास और संस्कृति की जानकारी प्राप्त होती है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं प्रथम श्रुतस्कन्ध में १९ अध्ययन हैं (१) उत्क्षिप्त (मेघकुमार की कथा), (२) संघाटक (धन्नासेठ), (३) अंडक (चम्पानगरी-वर्णन तथा मयूर-अण्डकथा), (४) कूर्म (वाराणसी नगरी-वर्णन तथा कछुआ की कथा), (५) शैलक (द्वारकावर्णन तथा शैलक की कथा), (६) तुम्बक (राजगृह का वर्णन), (७) रोहिणीज्ञात (वधू रोहिणी की कथा), (८) मल्ली (१९वें तीर्थंकर की कथा), (९) माकन्दी (वणिक पुत्र जिनपालित और जिनरक्षित की कथा), (१०) चन्द्र, (११) दावद्रव (दावद्रव समुद्र तट पर स्थित वृक्ष की कथा), (१२) उदकज्ञात (कलुषित जलशोधन), (१३) मंडुक ज्ञात या दर्दरज्ञात (नन्द के जीव मेढ़क की कथा), (१४) तेतलिपुत्र, (१५) नन्दोफल, (१६) द्रौपदी, (१७) आकीर्ण (जंगली अश्व), (१८) संसुमा (सेठ कन्या) और (१९) पुंडरीक । इन कथाओं में कथा को अपेक्षा उदाहरण पर विशेष बल दिया गया है। द्वितीय तस्कन्ध-विषय और शैली की दृष्टि से यह प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा भिन्न प्रकार का है । इसमें धर्मकथाओं के १० वर्ग हैं जिनमें चमर, बलि, चन्द्र, सूर्य, शक्रेन्द्र, ईशानेन्द्र, आदि देवों की पटरानियों के पूर्वभव की कथायें हैं। इन पटरानियों के नाम उनके पूर्वभव (मनुष्य भव) की स्त्रीयोनि से सम्बन्धित हैं । जैसे काली, रजनी, मेघा आदि । (घ) तुलनात्मक विवरण यद्यपि तत्त्वार्थवार्तिक में अनेक आख्यान-उपाख्यान कहे हैं परन्तु जयधवला में ज्ञाताधर्म की १९ धर्मकथाओं के कथन का उल्लेख मिलता है जो संभवतः १९ अध्ययनों का द्योतक है । इससे तथा श्वे० ग्रन्थों के उल्लेख से एक बात ज्ञात होती है कि मूलतः इसमें १९ अध्ययन रहे होंगे । 'धर्मकथाओं के १० वर्ग हैं जिनमें ३३ करोड़ कथायें हैं' इत्यादि कथन अतिरंजनापूर्ण है। इन १० धर्मकथाओं का स्थानाङ्ग में कोई उल्लेख भी नहीं मिलता है। श्वे० ग्रन्थोक्त संख्यात सहस्र पद-संख्या अनिश्चित है जबकि दिग० ग्रन्थों में एक निश्चित पदसंख्या का उल्लेख किया गया है। समवायाङ्गोक्त २९ उद्देशन और २९ समुद्देशन काल में संभवतः १९ अध्ययन और १० धर्मकथाओं के वर्ग को जोड़कर २९ कहा है जबकि नंदी में मात्र १९ उद्देशन और १९ समुद्देशन काल कहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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