SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ ८७ होता है। इसी प्रकार नीहारिकाओं के फैलाव की कहानी विचित्र है । इन सभी आविष्कारों के बीच जीव-विज्ञान भी पनप रहा है और उसकी नियन्त्रण योग्यताओं का अध्ययन भी यन्त्र जैसा हो रहा है। भारत के दो उपग्रह आर्यभट्ट तथा भास्कर एवं अन्य उपग्रह अनेक रहस्यों को खोलने हेतु विशेष कार्य कर रहे हैं। नेमिचन्द्राचार्य की मान्यताएँ उपर्युक्त तारतम्य में अब हम वर्द्धमान महावीर के तीर्थ में उदित खगोल विद्या का अध्ययन करेंगे। चूंकि नेमिचन्द्राचार्य का कार्य आचार्य परम्परागत ज्ञान के आधार पर संकलित हुआ, इसलिए उनकी मान्यताओं का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन श्रुत परम्परा । इसे लगभग ईसा की प्रथम सदी माना जा सकता है। खगोल विद्या सम्बन्धी दो रचनायें नेमिचन्द्राचार्य की निम्नलिखित है--द्रव्यसंग्रह (५८ श्लोक) एवं त्रिलोकसार (१०१४ श्लोक)। द्रव्यसंग्रह बृहद्रव्यसंग्रह के नाम से भी विख्यात है। सबसे प्रथम इसी ग्रन्थ से बालबोध प्रारम्भ किया जाता है। इसमें नय की सरलता, पदार्थविज्ञान एवं खगोलविद्या का प्रथम द्वार खुलता है। लघुद्रव्यसंग्रह भी २६ गाथाओं में उपलब्ध है। द्रव्यसंग्रह पर संस्कृत में श्री ब्रह्मदेव सूरि की टीका उपलब्ध है। त्रिलोकसार पर संस्कृत में माधवचन्द्र वैविध्य एवं पं० टोडरमल की हिन्दी भाषा टीका उपलब्ध है। अभी श्री महावीरजी से प्रकाशित आर्यिका श्री विशुद्धमती द्वारा नवीन रूप में अवतरित त्रिलोकसागर भी दृष्टव्य है। इनके सिवाय खगोलविद्या सम्बन्धी जानकारी गोम्मटसार एवं लब्धिसार में भी उपलब्ध है। अब हम देखेंगे कि नेमिचन्द्राचार्य ने खगोलविद्या सम्बन्धी मान्यताओं को किस प्रकार स्पष्ट किया है। समस्त विश्व में सर्वप्रथम जीव और अजीव के दो जगत् विभक्त किये गये। जीव के विभिन्न लक्षण व्यवहार नय तथा निश्चय नय (behavioral purport and deterministic purport) पर आधारित किये गये हैं । व्यवहार नय से तीनों कालों में जीव के इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास है, किन्तु निश्चय नय से उसके चेतना (consciousness) ही है। उसका उपयोग ज्ञान दर्शनमय है, वह स्वयं अमूर्त है, कर्ता है, निज शरीर के बराबर है, भोक्ता है, संसारी तथा सिद्ध है। व्यवहार नय से विवेचन वैज्ञानिक प्रयोग का आधार बनता है और निश्चय नय से व्याख्या वैज्ञानिक सिद्धान्त का आधार बनती है। अदृष्ट, अमूर्तता, इन्द्रियग्राहय न भी हो, तो भी उसका अस्तित्व है, वह जानी जा सकती है, लक्षण में स्थापित की जा सकती है। बन्ध होने से व्यापार में जीव मूर्त और वर्ण, रस, गंधमय अथवा पौद्गलिक सामग्री के लक्षणों से पूर्ण दिखाई देता है । (द्रव्यसंग्रह १-८)। सबसे बड़ी उपलब्धि यह मान्यता है कि जीव यन्त्रवत् भी है, उसे पौद्गलिक यन्त्र द्वारा साइमुलेट (simulate) किया जा सकता है और इस प्रकार के व्यवहार से आत्मा पुद्गल कर्मादि का कर्ता होता है। उस यन्त्र में पुद्गल का आस्रव होता है, उसमें बन्ध होता है, निर्जरा उदयभूत होती है और इसमें रुकावट या संपर भी होता है। इस प्रकार का पुद्गल यन्त्र भौतिक विज्ञान का आधार बन जाता है। उसमें आने जाने वाले परमाणुओं की गिनती, उनकी ऊर्जा का परिमाण, उनके रहने की स्थिति तथा उनके द्वारा जीवादि को दिये गये फल, अनुभाग की भी गणना हो सकती है। यह जीव के विकारी भावों के निमित्त (field) को पाकर ही हो सकता है, अन्यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy