SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्या बोटिक दिगम्बर हैं ? गाथाएँ मूल नियुक्ति को नहीं हो सकतीं, क्योंकि नियुक्ति में बार-बार सात निह्नवों का ही उल्लेख किया गया है, जिसमें बोटिक का समावेश नहीं है। आवश्यकनियुक्ति एवं आवश्यक मूलभाष्य के इस अन्तर का स्पष्टीकरण करने का प्रयत्न आचार्य हरिभद्र ने अपनी टीका में किया है। विशेषावश्यक में भी ये गाथाएँ इसी रूप में मिलती हैं, किन्तु इस मत के विवरण में, जो विशेषावश्यक में विस्तार करने वाली गाथाएँ हैं, उनका कोई निर्देश आवश्यकचूणि में नहीं है। अतएव यह प्रतीत होता है कि मूलभाष्य विशेषावश्यकभाष्य से पृथक् था। सम्भव है कि विशेषावश्यक में जो 'विशेष' शब्द है, वह मूलभाष्य से पृथक्करण के लिए प्रयुक्त है। प्रस्तुत भाष्य-गाथाओं में बोटिक के मन्तव्य को दिट्ठी ( दृष्टि ) और मिच्छादसण ( मिथ्या दर्शन ) कहा है और उसकी उत्पत्ति को भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद ६०९ वर्ष व्यतीत होने पर हुई, यह भी स्पष्ट किया है। यह मिथ्यादर्शन आर्य कण्ह ( कृष्ण ) के शिष्य शिवभूति ने शुरू किया है और उनके दो शिष्य हुए-कोडिण्ण ( कौण्डिन्य ) और कोट्टवीर, उसके बाद परम्परा चली। मूलगाथाओं में इसे दिट्ठी या मिच्छादसण कहा है, किन्तु टीकाकारों ने इसे निह्नव कहा है तथा अन्य निह्नवों से इस निह्नव का जो भेद है, उसे बताने का प्रयत्न किया है। अन्य निह्नवों से इसका अन्तर स्पष्ट करने के पूर्व बोटिक शब्द के अर्थ को देखा जाय "बोटिकश्चासौ चारित्रविकलतया मुण्डमात्रत्वेन"-अर्थात् वे नग्न थे, इतना तो स्पष्ट होता है। 'चारित्र विकल' जो कहा गया है, वह साम्प्रदायिक अभिनिवेश है। आवश्यकचूणि में सात निह्नवों को 'देसविसंवादी' कहा है, जबकि बोटिक को 'पमूततरविसंवादी' कहा है। किन्तु साम्प्रदायिक व्यामोह बढ़ने के साथ बोटिक के लिए कोट्याचार्य ने विशेषावश्यक की गाथा ३०५२ की टीका में उसे 'सर्वविसंवादी' कह दिया है। आचार्य हरिभद्र अपनी आवश्यक वृत्ति में बोटिक को 'प्रभूतविसंवादी' कहते हैं, जो चूणि का अनुसरण है। विशेषावश्यक टीकाकार हेमचन्द्र ने कोट्याचार्य का अनुसरण करके बोटिक को 'सर्वविसंवादी' कहा है। इतने से सन्तुष्ट न होकर उन्होंने उसे 'सर्वापलाप' करने वाला भी कह दिया है। निशीथ भाष्य में सभी निह्नवों के विषय में कहा है कि ये 'वुग्गइ वक्केन' हैंगाथा ५६९६ और निशीथचूर्णि में 'बुग्गह' का अर्थ दिया है-"वुग्गहो त्ति कलहो त्ति वा भंडणं ति वा विवादो त्ति वा एगह्र' । उत्तराध्ययन की टीका में शाक्याचार्य ने चूर्णि का अनुसरण करके बोटिक को 'बहुतरविसंवादी' कहा है । पूर्वोक्त भाष्य-गाथाओं में तो इतनी ही सूचना है कि शिवभूति को उपधि के विषय में प्रश्न था । इस प्रश्न का विवरण भाष्य में उपलब्ध नहीं। इस विवरण के लिए हमारे समक्ष सर्वप्रथम जिनभद्र १. उत्तराध्ययन की शाक्याचार्य टीका, पृ० १८१ । २. आवश्यक चूर्णि, पृ० १४५ ( भाग १ )। ३. आवश्यक वृत्ति, पृ० ३२३ । ४. विशेषावश्यक, गाथा २५५० । ५. वही, गाथा २३०३ । ६. निशीथचूणि, गाथा ५५९५ । ७. उत्तराध्ययन टीका, पृ० १७९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy