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________________ मधुसूदन ढांकी वरं प्रविष्टं ज्वलितं हुताशनं न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः परिशुद्धकर्मणो न शोलवृत्तस्खलितस्य जीवितम् ॥ जर्मन विद्वानों ने इस चूणि का समय ईस्वी ६००-६५० के मध्य माना है।' किन्तु इस पर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य ( लगभग ५७५-५८५ ईस्वी) का कोई प्रभाव न मिलने से ( स्व० ) मुनि पुण्यविजय जी ने इसे भाष्य पूर्व की रचना स्वीकार किया है। परन्तु आवश्यक चूणि में "सिद्धसेन क्षमाश्रमण" का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने जिनभद्रगणि के जीतकल्प-भाष्य पर चूणि लिखी है। इसको देखते हुए आवश्यक-चूणि को सातवीं शती के पूर्वार्ध की रचना मानना ही संगत होगा। ऊपर उद्धृत पद निश्चितरूप से ७वीं शती से पूर्व की जैनरचना है। इसकी शैली भी हारिल वाचक की शैली के सदृश है। साथ ही पद के सम्भावित समय के आधार पर यह माना जा सकता है कि यह उनकी ही रचना होगी, और यह भी असम्भव नहीं है कि शायद एक ही कृति में से यह सब उद्धृत किया गया हो । ( स्व० ) मुनि कल्याणविजय को धारणा थी कि यह हारिल वाचक वही हैं, जिनका समय युग प्रधान पट्टावलि में "हरिभद्र'' नाम से वीर निर्वाण सं० १०६१/ईस्वी ५३४ दिया गया है। त्रिपुटि महाराज का कथन है कि पट्टावलिकार ने भ्रमवश "हरिगुप्त" के स्थान पर ( विख्याति के कारण ) ( याकिनीसूनु ) "हरिभद्र' नाम लिख दिया है । यह हरिगुप्त वही है, जिनसे कुवलयमाला-कहाकार (सं० ८४५/ईस्वी ७७९) ने अपनी गुर्वावलि आरम्भ किया है और उनको "तोरराय" (हुणराज तोरमाण) से सम्मानित भी बताया है। "हरिगुप्त" का प्राकृत रूप "हारिल" बन सकता है और यदि उनकी स्वर्गगमन तिथि ईस्वी ५३४ हो तो वह तोरमाण के समकालिक भी हो सकते हैं। उपर्युक्त आधार पर हारिल वाचक की यह अज्ञात रचना ६ठी शती के आरम्भ की मानी जा सकती है। यह कृति भर्तृहरि के वैराग्य-शतक जैसी रही होगी। इसके उपलब्ध पद्यों में रस और लालित्य के साथ शुद्ध वैराग्य भावना ( कुछ खिन्नता के साथ) प्रतिबिम्बित है। वाचक सिद्धसेन वादिवेताल शान्ति सूरि ने "सुखबोधा-वृत्ति" में वाचक सिद्धसेन के नाम से दो श्लोक उद्धृत किये हैं । यथाः १. यह मान्यता शूबिंग, अल्सडोर्णादि अन्वेषकों की है। विस्तार भय से यहाँ उनके मूल ग्रन्थ के सन्दर्भ नहीं दिये गये है। २. "प्रस्तावना", श्री प्रभावक चरित्र, [ गुजराती भाषान्तर ], श्री जैन आत्मानन्द ग्रन्थमाला नं० ६३ भावनगर १९३१, पृ० ५४ । ३. जन परम्परा नो इतिहास ( भाग १ लो) (गुजराती), श्री चारित्रस्मारक ग्रन्थमाला ग्र० ५१, अहमदाबाद १९४२, पृ० ४४७-४४८ । ४. मेहता, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ३, पृ० ३९१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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