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________________ ५०. भागचंद जैन भास्कर कर्म ही नहीं, लौकिक कारण भी माना गया है । 'अत्तदीपो भव' कहकर पुरुषार्थवादी की ओर संकेत किया है। प्रतीत्यसमुत्पाद अथवा हेतु-प्रत्यय सापेक्षता ईश्वरवाद का खण्डन करने के लिए पर्याप्त है, पर शून्यवाद तक पहुँचते-पहुँचते यह वाद 'अजातिवाद' तक चला गया।' जैनदर्शन स्कन्धों के परस्पर भेद, मिलन आदि से पुद्गलों की उत्पत्ति मानता है। उसी को हम जगत्-सृष्टि कहते हैं | शरीर, वचन मन, श्वासोच्छ्वास पुद्गल के ही परिणमन हैं। ये दृश्य और अदृश्य दोनों प्रकार के होते हैं । लोक द्रव्य की अपेक्षा सान्त है और वह पर्यायों की अपेक्षा से अनन्त है। काल की दृष्टि से शाश्वत है, पर क्षेत्र की दृष्टि से सान्त है । लोक पञ्चास्तिकायिक है। वह अनेकान्त की दृष्टि से शाश्वत भी और अशाश्वत भी है ।३ लोकसृष्टि ब्रह्मा आदि किसी ईश्वर की कृति नहीं, वह तो द्रव्यों का एक स्वाभाविक परिणमन है। जैन-बौद्ध दार्शनिकों ने सृष्टि के सन्दर्भ में वैदिक दार्शनिकों के तर्कों का निम्न प्रकार से खण्डन किया है (i) कार्यत्व हेतु युक्ति-युक्त नहीं, क्योंकि उसके मानने पर ईश्वर भी कार्य हो जायेगा। फिर ईश्वरवाद का भी कोई निर्माता होना चाहिये । इस तरह अनवस्था दोष हो जायेगा। (ii) जगत् यदि कृत्रिम है, तो कुपादि के रचयिता के समान जगत् का रचयिता ईश्वर भी अल्पज्ञ और असर्वज्ञ सिद्ध होगा। असाधारण कर्ता की प्रतीति होती नहीं। समस्त कारकों का अपरिज्ञान होने पर भी सूत्रधार मकान बनाता है। ईश्वर भी वैसा ही होगा। (iii) एक व्यक्ति समस्त कारकों का अधिष्ठाता हो नहीं सकता । एक कार्य को अनेक और अनेक को एक करते हैं। (iv) पिशाचादि के समान ईश्वर अदृश्य है, यह ठीक नहीं। क्योंकि जाति तो अनेक व्यक्तियों में रहती है, पर ईश्वर एक है। सत्ता मात्र से ईश्वर यदि कारण है, तो कुम्भकार भी कारण हो सकता है । अशरीरी व्यक्ति सक्रिय और तदवस्थ नहीं हो सकता। (v) ईश्वर की सृष्टि यदि स्वभावतः रुचि से या कर्मवश होती है तो ईश्वर का स्वातन्त्र्य कहाँ रहेगा ? उसकी आवश्यकता भी क्या ? वीतरागता उसकी कहाँ ? और फिर संसार का भी लोप हो जायेगा। (vi) स्वयंकृत कर्मों का फल उसका विपाक हो जाने पर स्वयं ही मिल जाता है। उसे ईश्वर रूप प्रेरक चेतना की आवश्यकता नहीं रहती। कर्म जड़ है अवश्य, पर चेतना के संयोग से उसमें फलदान की शक्ति स्वतः उत्पन्न हो जाती है। जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल यथासमय मिल जाता है। १. विशेष देखिए, लेखक की पुस्तक 'बौद्धसंस्कृति का इतिहास', पृ० ११२-११८ । २. भगवतीसूत्र, २-१-१० । ३. वही, १३-४-४८१ । Jajn Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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