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________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन बौद्ध साहित्य में विदेह को प्रथमतः राजतन्त्र और बाद में गणतन्त्र कहा गया है। उसकी अवस्थिति मगध देश से गंगापार मानी है । बुद्ध भी यहाँ के मखादेव आम्रवन में रुके थे । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में विदेह का वर्णन पौराणिक ही है। वहाँ कच्छा नामक विजय तथा क्षेमा नामक नगरी का उल्लेख है । कच्छा के तीन द्वीपों का भी उल्लेख है-मागध, वरतनु और प्रभास । अतः लगता है, यह विदेह मिथिला विदेह ही होना चाहिए। उत्तरकालीन जैन साहित्य में इसी विदेह का वर्णन मिलता है । आचार्य कुन्दकुन्द दक्षिण से कदाचित् इसी विदेह में पहुँचे होंगे। पूर्व विदेह सुमेरु के पूर्व में है। यहाँ सुकच्छा विजय और क्षेमपुरी नगरी है, अरिष्टपुरी नाम की राजधानी है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति इसी सन्दर्भ में वत्स, सुवत्स नगरियों का भी वर्णन करती है, जो उसके पश्चिम में अवस्थित हैं । हम यह जानते ही हैं कि वत्स राज्य मगध और अवन्ती के बीच स्थित था। उसके उत्तर में कोशल, पश्चिम में सुरसेन और दक्षिण में चेदि के कुछ भाग आते थे। यहाँ का राजा उदयन शक्तिसम्पन्न था। उसने चण्डप्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता से विवाह सम्बन्ध किया था। वत्स की राजधानी कौशाम्बी थी। पूर्व विदेहवर्ती वत्स को बुद्धकालीन वत्स से मिलाया जा सकता है। यहाँ तीर्थंकर गणधरदेव तथा चक्रवर्ती की स्थिति सर्वकालिक कही गयी है। जम्बूद्वीप का अपर विदेह रत्नसंचया नगरी के पश्चिम में अवस्थित है। यहाँ अशोकाविगतशोका नगरी का उल्लेख है, जिसका संकेत पाटलिपुत्र की ओर होना चाहिए। पूर्व की ओर अयोध्या की अवस्थिति बतायी है । विदेह, पूर्वविदेह और अपरविदेह को कहीं-कहीं मिला सा दिया है। इसलिए ऐसा लगता है, ये तीनों प्रदेश आसपास ही रहे होंगे। कहा गया है विदेह में विष्णु, महेश्वर, दुर्गा, सूर्य, चन्द्र और बुद्धदेव के भवन नहीं हैं। इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि उस समय वहाँ जैनधर्म काफी प्रभावक स्थिति में था। इस प्रकार जम्बूद्वीप का भूगोल व्यावहारिक स्तर पर यदि देखा जाये, तो अधिक से अधिक एशिया तक विस्तृत किया जा सकता है। उसके अधिकांश देश और नगर हमारे भारत देश से संबद्ध हैं । आचार्यों ने कहीं देशों और नगरों यहाँ तक कि राजाओं के नामों का भी अनुवाद कर दिया है। इसलिये मूल नामों की पहिचान करना कठिन-सा हो जाता है । अतः अभी जैन भौगोलिक परम्परा पर निष्पक्ष और निरभिनिवेश पूर्वक विचार किया जाना आवश्यक है। सृष्टि-सर्जना तत्त्वमीमांसा के सन्दर्भ में ईश्वर और सृष्टि कल्पना पर भी विचार किया जाना आवश्यक है। श्रमणेतर संस्कृति में ईश्वर को सृष्टि कर्ता-हर्ता और साथ ही सुख-दुःखदाता के रूप में अंगीकार किया गया है, पर श्रमण ( जैन-बौद्ध ) संस्कृति में ईश्वरवाद को कर्मवाद तथा सृष्टिवाद को निमित्त-उपादान कारणवाद के रूप में उपस्थित किया गया है। . पथिकसुत्त के अनुसार बौद्धधर्म में ईश्वर सत्ता वस्तुतः मानसिक सत्ता है। उसका सृष्टिकर्ता के रूप में कोई अस्तित्व नहीं, पर उनके स्वरूप पर विचार करने के बाद ऐसा लगता है कि बुद्ध ने ईश्वर का स्वरूप भी अवक्तव्य मानने की ओर संकेत किया है । उन्होंने विद्य ब्राह्मणों के कथन का अप्रामाणिक घोषित कर ईश्वर एवं ईश्वर द्वारा प्रवेदित वेद को अमान्य किया है और साथ ही ईश्वर मानने वालों की परम्परा को अन्धवेणी के समान कहा है। इसी तरह सभी सुख-दुःखों का कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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