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________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन २. तिर्यञ्च गति द्ध साहित्य में तिर्यञ्चगति का वर्णन बहुत कम मिलता है। जैन साहित्य में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के पशु-पक्षी - कीड़े इसके अन्तर्गत आते हैं । ये जलचर, थलचर, नभचर होते हैं। संज्ञीअसंज्ञी होते हैं, गर्भज और संमूर्छनज होते हैं । ५५ ३. मनुष्य गति दोनों धर्मों में मनुष्य गति को श्रेष्ठतम माना गया है। जैन साहित्य में मनुष्य दो प्रकार का है - आर्य और म्लेच्छ । उसके चार प्रकार भी हैं - कर्मभूमिज, भोगभूमिज, अन्तद्वीपज तथा संमूर्च्छ । पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद भी मिलते हैं । ४. देवगति बौद्धधर्म में देवों का वर्णन भी उतने विस्तार से नहीं है, जितना जैनधर्म में मिलता है। कामसुगतभूमि में मनुष्य को छोड़कर शेष छह प्रकार के देव हैं - चातुर्यहाराजिक, त्रायस्त्रिश, याम, तुषित, निर्माणरति और परनिर्मितवशवर्ती । इन भूमियों के ऊपर रूपावचरभूमि हैं, जिनकी संख्या १६ है - (i) ब्रह्मपारिषद्य, ब्रह्मपुरोहित, महाब्रह्मा, (ii) परित्ताभा, अप्रमाणाभा, आभास्वस, (iii) परीत्तशुभा, अप्रमाणशुभा, शुभाकीर्णा, (iv) वृहत्फला, असंज्ञिसत्त्वा, शुद्धावासा - अवृहा, अतपा, सुदृशा, सुदर्शी, अकनिष्ठा । इन रूपी ब्रह्माओं के ऊपर ४ अरूपी भूमियाँ हैं -- आकाशानन्त्याय - तन, विज्ञान, आकिञ्चन्य और नैवसंज्ञानासंज्ञा । जैनधर्म में देवों के चार भेद हैं- भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिषी और वैमानिक ( कल्पवासी) । कल्पवासियों के सोलह भेद सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार आदि रूपी ब्रह्माओं से मिलते-जुलते हैं और अरूपावरभूमि के देवों की नव ग्रैवेयक तथा सर्वार्थसिद्धि आदि से तुलना की जा सकती है । इनकी प्रकृति में कुछ अन्तर अवश्य दिखता है । धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य धर्मं द्रव्य और अधर्मं द्रव्य, जैनधर्म के विशिष्ट पारिभाषिक शब्द हैं । जो बौद्धधर्म में भी नहीं दिखाई देते हैं । जैनदर्शन में आकाश का कार्य अवगाहन करना है, स्थान देना है । वह अमूर्तिक, अखण्ड, नित्य, सर्वव्यापक, और अनन्तप्रदेशी द्रव्य है । इसमें जीव और पुद्गल को एकसाथ अवकाश देने की क्षमता है। बौद्धदर्शन में आकाश को असंस्कृत माना गया है, जिसमें उत्पादादि नहीं होते । काल द्रव्य जैनधर्म में वर्णित धर्म और अधर्म द्रव्य बौद्धधर्म में नहीं हैं । कालद्रव्य को जैनधर्म स्वीकार करता है । उसके अनुसार वह अमूर्तिक और निष्क्रिय है । घड़ी, घण्टा आदि से उसका अस्तित्व प्रमाणित होता है । Jain Education International बौद्धधर्म का प्रारम्भिक रूप काल को स्वीकार करता हुआ दिखाई देता है । वहाँ कहा गया है कि काल से औपाधिक द्रव्यों की उत्पत्ति होती है । यहाँ रूप को ही अनित्य माना जाता था और चित्त, विज्ञान जैसे अन्य सूक्ष्म धर्म इस अनित्यता के परे थे । वैभाषिक में रूप और चित्त को अनित्य माना है । सौत्रान्तिकों के अनुसार भूत, भविष्यत् काल का अस्तित्व नितान्त काल्पनिक एवं आधारविहीन है । सर्वास्तिवाद में उसके अस्तित्व को स्वीकार किया गया है । आर्यदेव ने काल For Private & Personal Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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