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________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन का अर्थ श्रद्धा है और सप्त तत्त्वों पर भली प्रकार ज्ञानपूर्वक श्रद्धा करना ही सम्यग्दर्शन है। दोनों धर्मों में श्रद्धा को प्राथमिकता दी गई है। एक में सम्यग्दर्शन है, तो दूसरा उसे ही सम्मादिट्ठी कहता है। यहाँ 'सम्यक्' शब्द विशेषण के रूप में जुड़ा हुआ है, जो पदार्थों के यथार्थ ज्ञानमूलक श्रद्धा को प्रस्तुत करता है। सम्यग्दर्शन निःशंकित, निःकांक्षित आदि आठ अंग शोभन चैतसिकों को और स्पष्ट कर देते हैं। ये वस्तुतः सम्यग्दृष्टि के चित्त की निर्मलता को सूचित करते हुए उसकी विशेषताओं को बताते हैं। अभिधम्मत्थसंगहो के प्रकीर्णक संग्रह में चित्तचैतसिकों का संयुक्त वर्णन किया गया है। चित्त-चैतसिकों के विविध रूप किस-किस प्रकार से परस्पर मिश्रित हो सकते हैं, इसे यहाँ वेदना, हेतु, कृत्य, द्वार, आलम्बन तथा वस्तु का आधार लेकर स्पष्ट किया गया है। वेदना संग्रह के सुख, दुःख, सौमनस्य, दौर्मनस्य और उपेक्षा को हम वेदनीय कर्म के भेद-प्रभेदों में नियोजित कर सकते हैं । अनुकम्पा, दान, पूजा, प्रतिष्ठा, वैयावृत्ति आदि सातावेदनीय कर्म हैं और दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिवेदन आदि कर्म असाता वेदनीय कर्म हैं। कृत्य संग्रह में निर्दिष्ट प्रतिसन्धि, भवंग, आवर्जन, दर्शन, श्रवण, घ्राण, आस्वादन, स्पर्श, संपरिच्छन आदि सभी चित्त-चैतसिक के कार्य हैं। इन्हें जैनधर्म के शब्दों में कर्मयुक्त आत्मा के परिस्पन्द कह सकते हैं। बौद्धधर्म में कर्म के भेद अनेक प्रकार से किये गये हैं। भूमिचतुष्क और प्रतिसन्धिचतुष्क का सम्बन्ध जीव अथवा चित्त के परिणामों पर आधारित अग्रिम गतियों में जन्म लेने से है । कुशलअकुशल चेतना के आधार पर बौद्धधर्म में जनककर्म, उपष्टंभक कर्म (मरणान्तकाल में भावों के अनुसार गतिदायक), उपपीड़क कर्म (विपाक को गहरा करने वाला) तथा उपघातक कर्म (कर्मफल को समूल नष्ट करने वाला) ये चार भेद किये गये हैं। ये भेद वस्तुतः कर्म की तरतमता पर आधारित हैं। किसी विषय विशेष से इनका सम्बन्ध नहीं है। पाकदान पर्याय की दृष्टि से गरुक, आसन्न आदि चतुष्क कम समय पर आधारित हैं। विपाक चतुष्क भी चार कर्म हैं-इष्टधर्मवेदनीय, उपपद्यवेदनीय, अपरपर्यायवेदनीय और अहोसिकमं । इनकी हम प्रकृतिबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध के साथ तुलना कर सकते हैं | जैनधर्म में वर्णित प्रदेशबन्ध जेसा विषय बौद्धधर्म में नहीं मिलता है। जैन-बौद्धधर्म में अकुशल कर्मों में मोह और तज्जन्य मिथ्यादृष्टि का स्थान प्रमुख है। मिथ्यादृष्टि को ही दूसरे शब्दों में 'शीलव्रत परामर्श' कहा गया है। जैनधर्म इसी को 'मिथ्यात्व' संज्ञा देता है। सबसे बड़ा अन्तर यह है कि जैनधर्म आत्मवादी धर्म है । बौद्धधर्म आत्मवाद को मिथ्यात्व कहता है, जबकि जैनधर्म अनात्मवाद को । अन्त में चलकर दोनों एक ही स्थान पर पहुंचते हैं। गति जिसके उदय से आत्मा भवान्तर को प्राप्त करता है, वह गति नामकर्म है । जैनधर्म में गतियाँ चार प्रकार की बताई हैं-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गति । बौद्धधर्म में इस संदर्भ में चार भूमियों का उल्लेख है-अपाय, कामसुगति, रूपावचर एवं अरूपावचर । अपायभूमि चतुर्विध हैनिरक, तिरश्चीनयोनि, पैत्रविषय एवं असुरकाय । कामसुगति भूमि सात प्रकार की है-मनुष्य, चातुमहाराजिक आदि । नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और शेष देवों के प्रकार उन भूमियों में दिखाई देते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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