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________________ भागचंद जैन भास्कर ૪૪ है । धातुक आयु ही जीवितेन्द्रिय है । यह ऊष्म और विज्ञान का आधार है । शरीर से आयु, ऊष्म और विज्ञान के अलग हो जाने पर शरीर काष्ठवत् अचेतन बन जाता है । यह जीवितेन्द्रिय दो प्रकार की होती है - नाम जीवितेन्द्रिय और रूप जीवितेन्द्रिय । नाम जीवितेन्द्रिय अपने संप्रयुक्त धर्मों का अनुपालन करती है और रूप जीवितेन्द्रिय अपने साथ अत्यन्त कर्मज एवं चित्तज रूपों का अनुपालन करती है ।' प्राणियों का जीवन इन दोनों जीवितेन्द्रियों पर अवलम्बित है । उदक, धात्री एवं नाविक से इसकी उपमा दी जाती है । यही नाम रूप धर्मों की निरन्तर प्रवृत्ति ( संतति ) बनाये रखती है । जब तक कर्म अवशिष्ट रहते हैं, तबतक संप्रयुक्त धर्मं निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं । इसलिए यह जीवितेन्द्रिय नाम-रूप स्कन्ध संतति में प्रधान होती है । उसी के अनुपालन -सामर्थ्य से कर्मज रूपों की आयु ५१ क्षुद्रक्षण पर्यन्त होती है । स्थविरवाद में इसे सर्वचित्तसाधारण चैतसिकों में अन्यतम माना गया है । जीवितेन्द्रिय की तुलना आत्मा से की जा सकती है। आत्मा भी सर्वचित्त साधारण चैतसिक जैसा ही है । अन्तर यह है कि बौद्धधमं के अनुसार परिनिर्वाण प्राप्त होते ही इसका उच्छेद हो जाता है, जबकि जैनधर्म में आत्मा का उच्छेद कभी नहीं होता । कर्म विनिर्मुक्त होने पर वह विशुद्ध अवस्था में आ जाता है । कवलीकार आहार वह आहार है, जिसका कवल किया जाता है। अतः समस्त खाद्य पदार्थ कवलीकार आहार हैं । यहाँ आहार में सन्निविष्ट ओजस् को ही आहार रूप माना 1 जैनधर्म में उपभोग्य शरीर के योग्य पुद्गलों के ग्रहण को आहार कहते हैं । यह आहार शरीर नामकर्म के उदय तथा विग्रह गति नाम के उदय के अभाव से होता है । जैनागमों में आहार विषयक वर्णन विस्तार से किया गया है । वहाँ आहार के चार भेदों का वर्णन मिलता है— कर्माहारादि, खाद्यादि, काँजी आदि तथा पानकादि । कर्माहारादि में कर्माहार, नोकर्माहार, कवलाहार, लेप्याहार, ओजाहार और मानसाहार का समावेश है। यहाँ कवलाहार और ओजाहार का सम्बन्ध बौद्धधर्म में उल्लिखित कवलीकार आहार और उसके ओजस् आहार से स्पष्ट है। जैनधर्म में " अर्हत् कवलाहार करते हैं या नहीं" यह एक विवाद का विषय रहा है । बौद्धधर्म में इस प्रकार की किसी समस्या का उल्लेख नहीं । अठारह प्रकार के ये रूप स्वभावरूप, सलक्षणरूप, रूपरूप एवं संमर्शनरूप कहे जाते हैं । इनमें अनित्यता, दुःखता, अनात्मता तथा उपचय, संतति, जरता एवं अनित्यता रूप द्रव्य सत् कहलाते हैं । इन्हें भाव भी कहते हैं । जैनधर्म में भी इनके लिए द्रव्य सत् और भाव शब्दों का प्रयोग हुआ है । बौद्धदर्शन की यह रूप की कल्पना रूप के गुणत्व पर आधारित है । उसके अनुसार गुण से व्यतिरिक्त गुण की अवस्थिति किसी भी तर्क से सिद्ध नहीं होती, पर जैनदर्शन इसमें कथञ्चित् भेद मानता है । १. परमत्थदीपिनी, पृ० २३७; विशुद्धिमग्ग, पृ० ३१२ । २. अभिधम्मत्थसंग हो, ६-१० विसुद्धिमग्ग, पृ० ३१३; अट्टसालिनी, पृ० २६५-६ । ३. राजवार्तिक, ९.७ ४. अभिधम्मत्थसंगहो, ६.११ । ५. मूलाचार, ६७६; भगवती आराधना, ७००; अनागार धर्मामृत, ६.७३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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