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________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन हम भावेन्द्रिय के साथ किसी सीमा तक बैठा सकते हैं । इनके क्षेत्र का वर्णन बौद्धधर्म में नहीं । आकार का वर्णन मिलता है, पर कुछ अन्तर के साथ । बौद्धधर्म में चक्षु, श्रोत्र, घ्राण और जिह्वा को क्रमशः यूंका, मुद्रिका, अजाक्षुर तथा कमलदल के समान बताया है तथा जैनधर्म में मसूर, जौ की नली, अतिमुक्तक पुष्प और खुरपा अथवा अर्धचन्द्र के समान कहा है। दोनों परम्पराओं में कोई विशेष मतभेद नहीं है। बौद्धधर्म में जिसे चक्षुर्धातु व चक्षुद्वार कहा है, वह जैन धर्म का निवृत्ति द्रव्येन्द्रिय है । बौद्धधर्मं में जिसे चक्षुप्रसाद कहा है, जैनधर्म का वह आभ्यन्तर उपकरण द्रव्येन्द्रिय है । आलम्बन और विज्ञान में कोई विशेष अन्तर नहीं । पञ्चेन्द्रियों के गोचररूपों को जैनधर्म में इन्द्रियों का विषय कहा है । स्त्रीत्व और पुरुषत्व ये दो भाव रूप हैं । ये दोनों भावरूप प्रतिसन्धिक्षण से ही स्कन्ध में उत्पन्न हो जाते हैं और कायप्रसाद की तरह संपूर्ण शरीर में व्याप्त होकर विद्यमान रहते हैं । भाव के अनुसार ही उनका लिंग, निमित्त, कुत्त (क्रिया) एवं आकार होता है । हस्त, पाद आदि संस्थान लिंग (नियतचिह्न) हैं, स्मश्रु रहित या युक्तं दाढी आदि निमित्त (अनियत चिह्न) हैं, चलनी, चक्की अथवा रथ आदि के साथ क्रीड़ा करना कुत्त (स्वभाव) है तथा विशेष प्रकार का गमन आदि आकप्प (आकार) है ।' उभयव्यञ्जक योनि का भी कथन मिलता है, जिसमें कहीं स्त्रीत्व का और कहीं पुरुषत्व का प्राधान्य रहता है । स्त्रीभाव और पुरुषभाव रूपों में पुरुषभाव रूप उत्तम तथा स्त्रीभाव रूप हीन माना गया है। कुशल कर्मों से पुरुषभाव और अकुशल कर्मों से स्त्रीभाव की प्राप्ति होती है । ४३ जैनधर्म में इन भाव रूपों को वेदकर्म का परिणाम माना गया है । यह वेद कर्म मोहनीय कर्म से उत्पन्न होता है और स्त्रीभाव, पुरुषभाव तथा नपुंसकभाव को प्राप्त होता है । ये तीनों वेद द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग के भेद से दो प्रकार के होते हैं । इन्हें नोकषाय जनक कहा गया है । नाम कर्म के उदय से होने वाली शरीर रचना द्रव्यलिङ्ग है तथा आत्मपरिणाम भावलिङ्ग है । अन्तरङ्ग परिणामों के कारण द्रव्य पुरुष को स्त्रीवेद का और द्रव्य स्त्री को पुरुषवेद का उदय देखा जाता है । भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यञ्चों में तथा देवों में स्त्री और पुरुष ये दो ही वेद होते हैं, परन्तु कर्मभूमिज मनुष्य एवं पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में तीनों वेद होते हैं। नारकी जीव नपुंसकवेदी ही होते हैं । पुरुषवेद के कर्म अपेक्षाकृत अधिक शुभ माने जाते हैं । सिद्धान्तः दोनों में कोई भेद नहीं । वर्णनप्रक्रिया में ही अन्तर है । हृदयवस्तु को हृदय रूप कहते हैं । इसी के होने पर व्यक्ति कुशल- अकुशल कर्म करता है । पालि त्रिपिटक में हृदयवस्तु के सन्दर्भ में कुछ विशेष जानकारी नहीं मिलती। पर आगे चलकर पट्टान के आधार पर उसे विकसित किया गया है। फलतः उसे मनोधातु और मनोविज्ञानधातु के आश्रयस्थल के रूप में स्वीकार कर लिया गया । जीवितेन्द्रिय को जीवित रूप कहा जाता है। यह जीवितेन्द्रिय कर्मज रूपों की आयु है । इसमें कायप्रसाद तथा भावरूप नहीं होते, पर वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। जिससे सहजात धर्म जीवित रहते हैं और जीवन धारण करने में जो अधिपति रहता है, वह जीवितेन्द्रिय कहलाता १. अभिघम्मत्थसंगहो, ६.७; विभावनी, पृ० १५० । २. मट्टसालिनी, पू० २५९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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