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________________ भागचंद जैन भास्कर शब्द जो उच्चरित होता है, वह शब्द है-सद् दीयति उच्चारीयतीति सद्दो । अर्थात् श्रोत्रविज्ञान के आलम्बनभूत सभी जीव-अजीव शब्दों को शब्द कहते हैं। सजीव सत्वों के भाव प्रकट करने वाले हँसने, रोने जैसे शब्द चित्त से उत्पन्न होते हैं तथा उदर शब्द, मेघ शब्द आदि बाह्य शब्द ऋतु से उत्पन्न होते हैं।' वसुबन्धु ने शब्द आठ प्रकार का बताया है। उनके अनुसार वह मूलतः चार प्रकार का है-उपात्त महाभूतहेतुक (हस्त, वाक्शब्द), अनुपात्तमहाभूत हेतुक (वायु, नदी शब्द) सत्त्वाख्य (वाग्विज्ञप्ति) एवं असत्त्वाख्य (अन्य शब्द)। ये चारों शब्द मनोज्ञ और अमनोज्ञ भी होते हैं । उपात्त वह है, जो चित्त चैत के अधिष्ठान भाव से उपगृहीत अथवा स्वीकृत हो । पंच ज्ञानेन्द्रिय भूत रूप चित्त से उपगृहीत हैं। लोक में इसे सचेतन या सजीव कहा जाता है । कुछ आचार्य प्रथम दो प्रकार के शब्द युगपत् मानते हैं, परन्तु वैभाषिक इसे स्वीकार नहीं करते। __जैनधर्म में शब्द को ध्वनिरूपात्मक माना गया है। अकलंक ने शब्द को अर्थाभिव्यक्तिकारक कहा है। यह दो प्रकार का है-भाषात्मक और अभाषात्मक । भाषात्मक शब्द के दो भेद हैंअक्षरात्मक (संस्कृत, प्राकृत आदि भाषायें) तथा अनक्षरात्मक (द्वीन्द्रियादि के शब्द-रूप एवं दिव्यध्वनि रूप)। अभाषात्मक शब्द दो प्रकार के हैं-प्रायोगिक और वैससिक। प्रायोगिक शब्द चार प्रकार का है १. तत (चमड़े से मढे हुए पुष्कर, भेरी आदि का शब्द)। २. वितत (तांत वाले वीणा और सुघोष से उत्पन्न होने वाला शब्द)। ३. घन (ताल, भेरी, मृदंग आदि के ताड़न से उत्पन्न होने वाला शब्द)। ४. सौषिर (बांसुरी और शंख आदि के फूकने से उत्पन्न होने वाला शब्द)। धवलाकार ने घोष और भाषा को भी इसी में संयोजित किया है । मेघादि से उत्पन्न होनेवाले शब्द वैस्रसिक हैं। ये शब्द स्कंधजन्य हैं। स्कन्ध परमाणुदल का संघात है और वे शब्द स्पर्शित होने से शब्द उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार शब्द नियत रूप से उत्पाद्य है। अतः वह पुद्गल की पर्याय है, आकाश का गुण नहीं । यहाँ सजीव अथवा उपात्त शब्द भाषात्मक शब्द जैसा है तथा अजीव अथवा अनुपात्तिक शब्द अभाषात्मक शब्द जैसा है । अनुपात्त महाभूतहेतुक और बैनसिक, दोनों समानार्थक हैं। रस और गन्ध बौद्धधर्म में रस (जिसका आस्वाद किया जा सके) छह प्रकार का है-मधुर, आम्ल, लवण, कटु, कषाय और तिक्त। षट्खण्डागम में लवण को छोड़कर शेष पांचों रसों को स्वीकार किया गया है। जो अपने आधारभूत द्रव्य को सूचित करे, वह गंध है-गन्धयति अत्तनो वत्थु सूचेतीति १. अभिधम्मत्थसंगहो, ६, ४० । २. धवला, १११,३३ । ३. राजवातिक, ५,२४ । ४. पंचास्तिकाय, ७९; राजवातिक, ५,१८ । ५. अभिधम्मत्थसंगहो, ६-६, अभिधर्मकोश, १-१०। ६. षट्खण्डागम, ६,१,९,१, सूत्र ३९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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