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________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन बौद्धदर्शन इस दृष्टि से भेदवादी है और असत्कार्यवादी है। वहाँ किसी भी पदार्थ में अन्वय नहीं पाया जाता। इसलिए क्षणभंगवाद और शून्यवाद जैसे सिद्धान्तों को उसमें चरम सत्य माना गया है। परन्तु जैन 'भेदाभेदवाद' को स्वीकार करता है। जितना सत्य भेद में है, उतना ही सत्य अभेद में है। एक दूसरे के बिना उसका अस्तित्व नहीं। पदार्थ न केवल सामान्यात्मक है और न केवल विशेषात्मक, बल्कि सामान्य-विशेषात्मक है। द्रव्य का यही वास्तविक स्वरूप है। उसका यह स्वभाव है। अनेकान्तात्मक दृष्टि से वह कथञ्चित् भिन्न है और कथञ्चित् अभिन्न । अभेद द्रव्य का प्रतीक है और भेद पर्याय का । द्रव्य और पर्यायों का यह स्वाभाविक परिणमन होता रहता है। उपादान और निमित्त कारणों के माध्यम से पदार्थों का संगठन और विघटन भी होता रहता है। इसके लिए किसी ईश्वर आदि की आवश्यकता नहीं रहती। पञ्चस्कन्धों को 'संस्कृत' कहा जाता है । स्कन्ध का तात्पर्य है-राशि अर्थात् संस्कृत पदार्थ । संस्कृत के दो भेद हैं-सास्रव और अनास्रव । उपादान स्कन्ध (लोभ और दृष्टि) सास्रव हैं तथा पञ्च स्कन्ध अनास्रव हैं। जैनधर्म में रूप उस अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ; जिस अर्थ में बौद्धधर्म में प्रयुक्त हुआ है। फिर भी उसका, प्रयोग अनेक अर्थों में यहाँ मिलता है। कहीं चक्षु के द्वारा ग्राह्य शुक्लादि गुणों के अर्थ में उसका प्रयोग हुआ है, जैसे-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श । कहीं रूप का अर्थ स्वभाव भी है। जैसे अनन्त रूप अर्थात् अनन्त स्वभाव ।' कहीं-कहीं रूप का अर्थ निर्ग्रन्थ साधुओं की वीतराग मुद्रा भी किया गया है । बौद्धधर्म में वर्णित भूतरूपों को जैनधर्म में एकेन्द्रिय जीवों के आश्रय के रूप में उल्लिखित किया गया है। वर्ण शब्द का भी अनेक अर्थों में प्रयोग हुआ है। जैसे शुक्लादिक वर्ण, अक्षर, ब्राह्मण आदि जाति विशेष, यश आदि । वर्ण नामका एक नाम कर्म भी है, जो पाँच प्रकार का है-कृष्ण, नील, रुधिर, हारिद्र और शुक्ल । यहाँ हरित और कृष्ण का बौद्धधर्मोक्त वर्णों के अतिरिक्त उल्लेख है। सर्वार्थसिद्धि में हरित के स्थान पर पीत वर्ण नियोजित किया गया है।५ लेश्या के प्रकरण में इन वर्गों की संख्या छह हो गई है। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ।' जैनधर्म में संस्थान भी नामकर्म का भेद है। इसका अर्थ है-आकृति । जिसके उदय से औदारिकादि शरीरों की आकृति बनती है, वह संस्थान नामकर्म है। इसके छह भेद किये गये हैं१. समचतुस्र (समचक्र), २. न्यग्रोध (ऊपर विशाल और नीचे लघु), ३. स्वाति (ऊपर लघु और नीचे भारी), ४. कुब्ज (कुबड़ापन), ५. वामन और ६. हँडक (अंगोपांगों को बेतरतीब हुण्ड की तरह रचना) । पूज्यपाद ने संस्थान के वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण, आयत, परिमण्डल आदि भेद भी किये हैं। इन संस्थानों में बौद्धधर्मोक्त प्रायः सभी संस्थान अन्तर्भूत हो जाते हैं। १. राजवातिक, १, २७ । २. प्रवचनसार, ता. व. गाथा, २०३ । ३. भगवती आराधना, वि. गा. ४७ । ४. षट्खण्डागम, ६.१, ९-१, सूत्र ३७ । ५. सर्वार्थसिद्धि, ५.२३ । ७. षट्खण्डागम, ६१,९१, सूत्र, ३४ । ६. षट्खण्डागम, १,१,१, सूत्र, १३६ । ८. सर्वार्थसिद्धि, ५, २४ । : । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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