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________________ ३२ भागचंद जैन भास्कर के समाप्त होते ही प्राणी भी समाप्त हो जाता है।' इसे 'भेदवाद' कहते हैं। वैभाषिक-सौत्रान्तिक भेदवादी हैं। क्षणभङ्गवाद उनका परम सत्य है। वे धर्मनैरात्म्य (बाह्य पदार्थ क्षणिक और निरंश परमाणुओं का पुञ्ज है) और पुद्गल नैरात्म्य (अनात्मवाद) को मानते हैं। सारा व्यवहार संततिवाद और संघातवाद पर आश्रित है। संस्कृत पदार्थ प्रतीत्यसमुत्पन्न और अनित्य है । जिस पदार्थ का समुत्पाद सकारण होता है, वह स्वतन्त्र नहीं। अतः माध्यान्तिकवादियों ने पदार्थ को शून्यात्मक कहा है। सूत्रान्तपालि में "जरा मरणं भिक्खवे ! अनिच्चं, सङ्खतं पटिच्चसमुप्पपन्न" ३ में संस्कृत के तीन ही लक्षण दिये गये हैं । यहाँ स्थिति का कोई उल्लेख नहीं । सौत्रान्तिकों की दृष्टि में संस्कृत के लक्षण चार ही हैं। उन्होंने 'जरा' के साथ स्थिति को प्रज्ञप्त किया है। वे वस्तुतः इन लक्षणों को पृथक् द्रव्य न मानकर उन्हें प्रवाह रूप मानते हैं। यह प्रवाह ही उनकी स्थिति का सूचक है। सौत्रान्तिक जीवित-आयु को द्रव्य नहीं मानते । विज्ञानवादी संस्कृत-असंस्कृत धर्मों को प्रज्ञाप्तिसत् मानते हैं और माध्यमिक उनका निषेधकर निःस्वभावता की सिद्धि करते हैं। बौद्धदर्शन में स्वलक्षण और सामान्यलक्षण दो तत्त्व माने गये हैं । स्वलक्षण का तात्पर्य हैवस्तु का असाधारण तत्त्व । इसमें प्रत्येक परमाणु की सत्ता पृथक् और स्वतन्त्र स्वीकार की गई है । इसके साथ ही वह सजातीय और विजातीय परमाणुओं से व्यावृत है। परमाणुओं में जब कोई सम्बन्ध ही नहीं, तो अवयवी के अस्तित्व को कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? बौद्धदर्शन में सामान्य तत्त्व को एक कल्पनात्मक वस्तु माना गया है। परन्तु चूंकि वह स्वलक्षण को प्राप्ति में कारण होता है, अतः मिथ्या होते हुए भी उसे पदार्थ की श्रेणी में रखा गया है। मनुष्यत्व, गोत्व आदि को सामान्य तत्त्व कहा गया है । स्वलक्षण तत्त्व अर्थक्रियाकारी है, अतः परमार्थ सत् है । पर सामान्य अर्थ क्रियाकारी नहीं, अतः उसे संवृति सत् माना है। सामान्य को कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं। धर्मकीर्ति ने स्वलक्षण और सामान्य लक्षण के भेद को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया हैस्वलक्षण सामान्यलक्षण १. अर्थक्रिया में समर्थ १. अर्थक्रिया में असमर्थ २. असदृश-सर्वतो व्यावत २. सदृश-सर्व व्यक्ति साधारण ३. शब्दाविषय (अवाच्य) ३. शब्दविषय ( वाच्य ) ४. स्वातिरिक्त निमित्त के होने पर स्वविषयक ४. स्वातिरिक्त निमित्त के होने पर बुद्धि का अभाव स्वविषयक बुद्धि का सद्भाव १. विसुद्धिमग्ग, ८। २. चतुःशतकम्, ३४८ । ३. संयुत्तनिकाय, द्वितीय भाग, पृ० २४ । ४. प्रमाणवार्तिक, २-३; तर्कभाषा, पृ० ११। प्रमाणवातिक, २.१.३, २७-२८, ५०-५४; न्यायविनिश्चय, १०२३-२४; न्यायावतार वात्तिक वृत्ति, भाषा टिप्पण, पृ. २११ । ५. प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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