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________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन द्रव्य-व्यवस्था द्रव्य का स्वरूप सतत मंथन का विषय रहा है। जैन दार्शनिक वास्तव में बहुतत्त्ववादी (Realistic pluralism) हैं। उनके अनुसार प्रत्येक परमाणु परमार्थ अखण्ड, स्वतन्त्र और उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक है। बौद्ध उसे स्वलक्षणात्मक मानते हैं, पर उसका प्रत्यक्ष कल्पनाजन्य अथवा भ्रमित स्वीकार करते हैं। सांख्य जड़ और चेतन को पृथक् तो मानते हैं, पर वे एक दूसरे के प्रति उनमें परिणामीकरण नहीं मानते । न्याय-वैशेषिक पृथ्वी आदि सभी द्रव्यों को स्वतन्त्र मानते हैं और बेदान्ती उन्हें ब्रह्म की ही पारमार्थिक सत्ता की प्रतीति समझते हैं । जिस प्रकार जैनदर्शन ने तत्त्व के सम्यग्दर्शन एवं ज्ञान को मोक्ष के कारणों में अन्यतम माना है, उसी प्रकार बौद्धदर्शन ने भी धर्मप्रविचय को निर्वाण का कारण प्रतिपादित किया है । धर्मप्रविचय प्रज्ञा पर आधारित है और प्रज्ञा वह है, जो सास्रव-अनास्रव का भेद कर सके। जो स्वलक्षण करता है, वह धर्म है और धर्म ही पुष्पों के समान व्यवकीर्ण हैं, जिन्हें प्रज्ञा के माध्यम से विभाजित किया जाता है। जैनधर्म ने तत्त्व के मूलतः दो भेद किये हैं-जीव और अजीव । बौद्धधर्म ने भी दो भेद किये हैं, पर उसने अनात्मवादी होने के कारण वैसे भेद न करके उन्हें संस्कृत और असंस्कृत के रूप में विवेचित किया है। संस्कृत में जाति (उत्पत्ति), जरा (वृद्धत्व या ह्रास), स्थिति और अनित्यता ये चार लक्षण होते हैं। रूपादि पञ्चस्कन्ध संस्कृत कहे गये हैं। समग्र रूपविधान में तत्त्व के स्थान पर 'रूप' का भी प्रयोग हुआ है। असंस्कृत अनास्रव धर्म-आकाश, प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध हैं। रूप के लक्षण के प्रसंग में उसे उपचय (उत्पाद), संतति, जरता (स्थिति) एवं अनित्यतामय माना है।' इसी को अहेतुक, सप्रत्यय, सास्रव, संस्कृत, लौकिक, कामावचर, अनालंबन और अप्रहातव्य कहा है। उपचय एवं संतति उत्पत्ति का प्रतीक है, जरता स्थिति का और अनित्यता भंग का प्रतीक है। यहाँ सम्बद्ध वृद्धि को 'सन्तति' कहा गया है, जिसका सम्बन्ध उत्पत्ति के साथ अधिक है। उत्पत्ति के बाद निष्पन्न रूपों के निरुद्ध होने से पूर्व ४८ क्षुद्रक्षण मात्र के स्थितिकाल को जीर्ण स्वभाव होने से 'जरता' कहा जाता है। प्रत्येक क्षण में उत्पाद, स्थिति और भंग नामक तीन क्षुद्रक्षण होते हैं । रूप का एक क्षण चित्तवीथि के १७ क्षणों के बराबर होता है । इन १७ क्षणों में भी क्षुद्रक्षण ५१ होते हैं, जिनके बराबर रूप का एक क्षण होता है। इन ५१ क्षुद्रक्षणों में से सर्वप्रथम उत्पाद क्षण को और अंतिम भंगक्षण को निकाल देने पर चित्त के ४८ क्षुद्रक्षण के बराबर रूप की जरता का काल होता है। एक चित्तक्षण में ये उत्पाद-स्थिति-भंग इतनी शीघ्रतापूर्वक प्रवृत्त होते हैं कि एक अच्छरा काल (चुटको बजाने या पलक मारने के बराबर समय) में ये लाखों करोड़ों बार उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाते हैं। इन उत्पाद-व्यय भङ्ग स्वभावो रूपों को 'संस्कृत' कहा जाता है। संस्कृत पदार्थ में परिवर्तन की शीघ्रता अन्वय की भ्रान्ति पैदा करती है। उसे ही स्थायी कह देते हैं-अन्वयवशात् । वस्तुतः प्राणो का जीवन विचार के एक क्षण तक रहता है । उस क्षण १. अभिधम्मत्थसङ्गहो, ६.१५:। २. वही, ६.१९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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