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________________ जैन सप्तमजी : आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में २१ भी कथन निरपेक्ष होगा, वह असत्य हो जायेगा । इसीलिए जैन तर्कशास्त्र केवल सापेक्ष कथन को ही सत्य मानता है। वस्तुतः सप्तभङ्गी के प्रत्येक भङ्ग सापेक्ष हैं, इसलिए सप्तभङ्गी में जो भी मूल्यवत्ता निर्धारित होगी, वह सापेक्ष होगी। ___इस प्रकार सप्तभङ्गी द्विमूल्यात्मक नहीं है। किन्तु क्या वह त्रि-मूल्यात्मक है ? ऐसा कहना भी ठीक नहीं लगता कि सप्तभङ्गी त्रि-मूल्यात्मक (Three Valued) है । आधुनिक त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र से उसकी किसी प्रकार तुलना ठीक नहीं बैठती है । त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र में कुल तीन मानदण्डों की कल्पना की गयी है-सत्य, सत्य-असत्य (संदिग्ध) और असत्य । सत्य वह जो पूर्णतः सत्य है, कथमपि असत्य नहीं हो सकता है। असत्य वह जो पूर्णतः असत्य है, जो किसी प्रकार भी सत्य नहीं हो सकता है, और संदिग्ध वह जो सत्य भी हो सकता है और असत्य भी। किन्तु वह एक साथ दोनों नहीं है। वह एक बार में एक ही है अर्थात् वह या तो सत्य है या असत्य है। किन्तु उसका अभी निर्णय नहीं हो पाया है। इसी संदिग्धता की तुलना अवक्तव्य भङ्ग से करके कुछ विद्वान् जैन सप्तभङ्गी को त्रि-मूल्यात्मक सिद्ध करते हैं। किन्तु यह भूल जाते हैं कि अवक्तव्य की संदिग्धता से कोई तुलना ही नहीं है । अवक्तव्य में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों ही एक साथ हैं, किन्तु उनका प्रकटीकरण असम्भव है। जबकि संदिग्धता में दोनों नहीं हैं। उसमें तो एक ही है, वह या तो सत्य है या असत्य है और उसे प्रकट किया जा सकता है। दूसरे वह संदेह या संभावना पर निर्भर है, जबकि अवक्तव्य पूर्णतः सत्य है। उसमें संदेह या संभावना का लेशमात्र भी समावेश नहीं है। तीसरे द्वि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र में एक तीसरे मूल्य असत्यता (०) की कल्पना है, जो जैन सप्तभंगी के विपरीत है। इसका विवेचन अभी हमने ऊपर किया है, साथ ही हमने यह भी स्पष्ट किया कि सप्तभंगी में सापेक्ष मूल्य का ही निर्धारण किया जा सकता है, निरपेक्ष का नहीं। परन्तु त्रि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र निरपेक्ष मूल्यों पर ही निर्भर करता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जैन सप्तभङ्गी त्रि-मूल्यात्मक नहीं है। किन्तु मूल प्रश्न यह है कि क्या इसे सप्तमूल्यात्मक या बहुमूल्यात्मक कहा जा सकता है ? यद्यपि आधुनिक तर्कशास्त्र में अभी तक कोई भी ऐसा आदर्श सिद्धान्त विकसित नहीं हुआ है, जो कथन की सप्तमूल्यात्मकता को प्रकाशित करे । परन्तु जैन आचार्यों ने सप्तभङ्गी के सभी भङ्गों को एक दूसरे से स्वतन्त्र और नवीन तथ्यों का प्रकाशक माना है। सप्तभङ्गी का प्रत्येक भङ्ग वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में नवीन तथ्यों का प्रकाशन करता है। इसलिए उसके प्रत्येक भङ्ग का अपना स्वतन्त्र स्थान और स्वतन्त्र मूल्य है । वस्तुतः प्रत्येक भङ्ग के अर्थोद्भावन में इस विलक्षणता के आधार पर ही सप्तभङ्गी को सप्तमूल्यात्मक कहना सार्थक हो सकता है। इस संदर्भ में जैन-दार्शनिकों के दृष्टिकोण पर गंभीरता पूर्वक विचार करना अपेक्षित है। __जैन आचार्यों ने सप्तभङ्गी के प्रत्येक भङ्ग को पृथक्-पृथक् दृष्टिकोण पर आधारित और नवीन तथ्यों का उद्भावक माना है। सप्तभङ्गीतरंगिनी में इस विचार पर विस्तृत विवेचन किया गया है । वहाँ कहा गया है कि प्रथम भङ्ग में मुख्य रूप से सत्ता के सत्व धर्म की प्रतीति होती है और द्वितीय भङ्ग में असत्व की प्रमुखतापूर्वक प्रतीति होती है। तृतीय 'स्यादस्ति च नास्ति' भंग में सत्व, असत्व को सहयोजित किन्तु क्रम से प्रतीति होती है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु में एक दृष्टि से सत्व धर्महै, तो अपर दृष्टि से असत्व धर्म भी है। चतुर्थ अवक्तव्य भङ्ग में सत्व-असत्व धर्म की सहयोजित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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