SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ डॉ० के० आर० चन्द्र प्रो० श्री एल० आल्सडर्फ महोदय यदि छन्द की दृष्टि से किसी शब्द की मात्रा को घटा या बढ़ा सकते हैं, ह्रस्व या दीर्घ कर सकते हैं और उसमें अक्षर बढ़ा या घटा सकते हैं तो इसी तरह से भाषा की प्राचीनता को सुरक्षित रखने के लिए क्यों न प्राचीन रूप ही स्वीकार किया जाना चाहिए। यदि किसी ग्रन्थ की प्राचीनता अन्य प्रमाणों से सुस्पष्ट हो तो फिर उसकी भाषा को भी प्राचीन रखने के लिए उपलब्ध आधारों के सहारे प्राचीन रूप हो स्वीकार किया जाना चाहिए। यह तो बिलकुल स्पष्ट है कि आगम ग्रन्थों की भाषा में ध्वन्यात्मक दृष्टि से बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ है। जैन लेहियों की प्रवृत्ति ही ऐसी रही है। इसका प्रबल साक्ष्य चाहिए तो हम विशेषावश्यक-भाष्य की प्रतों का अध्ययन करें। इससे इतना स्पष्ट हो जायेगा कि किसी को इस विषय में तनिक भी शंका करने का अवसर ही नहीं रहेगा। पं० श्री दलसुखभाई मालवणिया द्वारा सम्पादित एवं ला० द० भा० सं० वि० मन्दिर, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित वि० आ० भा० की कुछ विशेषताएँ हैं। इसके सम्पादन में जिन प्रतों का उपयोग किया गया है उनमें से सबसे प्राचीन जैसलमेर की ताडपत्रीय प्रत है जिसका समय लगभग ई० सन् ९५० है। ( इसके अतिरिक्त 'त' संज्ञक प्रत भी ताडपत्रीय है। 'है' और 'को' संज्ञक दो छपे हुए संस्करण हैं जो मलधारी हेमचन्द्र एवं कोट्याचार्य की टीका सहित हैं )। इन सबसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण जो प्रत मिली है वह है 'सं' संज्ञक जो स्वोपज्ञवृत्ति सहित है और उसका समय ई० सन् १४३४ है। स्वोपज्ञवृत्ति में हरेक गाथा का प्रथम शब्द मूल रूप में प्राकृत में दिया गया है और इससे इतना लाभ तो अवश्य है कि मूल रचनाकार ने प्राकृत शब्दों को किस स्वरूप में प्रस्तुत किया है उसे हम स्पष्ट रूप से जान सकते हैं। मूल ग्रन्थ के कर्ता आचार्य जिनभद्र का समय ई० सन् की छठी शताब्दी माना गया है ( स्वर्गवास ई० सन् ५९३ ) और जैसलमेर की प्रत जिस आदर्श प्रत पर से लिखी गयी थी उसका समय ई० सन् ६०९ है ऐसा श्री दलसुखभाई का मन्तव्य है । अतः वि० आ० भा० की जो प्राचीनतम प्रत मिली है वह रचनाकार से लगभग ३५० वर्ष बाद की ही है इसलिए रचनाकार की जो मूल भाषा थी उससे कोई अलग भाषा परिवर्तित रूप में इस प्रत में मिलने की सम्भावना कम ही रहती है। स्वोपज्ञवृत्ति में प्राप्त शब्दों के साथ तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जायेगा । ग्रन्थ के 'हे' एवं 'को' संज्ञक प्रकाशित संस्करणों के शब्दों में जो ध्वनिगत परिवर्तन मिलता है वह प्राकृत भाषा के विद्वानों एवं सम्पादकों के लिए ध्यान में लेने योग्य है। वि० आ० भा० का ध्वनिगत विश्लेषण (गाथा नं० १ से १०० जिनमें सभी प्रतों के पाठान्तर दिये गये हैं) (क) ग्रन्थ की स्वोपज्ञ वृत्ति में दिये गये हरेक गाथा के प्रारम्भिक शब्दों का भाषाकीय (ध्वनिगत) विश्लेषण । लोप सघोष - अघोष यथावत म० अल्प प्राण म. महा प्राण संयोग ९ १३% ० ०% ९ १०% ९ ६ १५ १३% ३५% १८% ४९ ७४% ११ ६५% ६० ७२% Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy