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________________ विशेषावश्यक-भाष्य के पाठान्तरों, उत्कीर्ण प्राचीन अभिलेखों और इसिभासियाइं की भाषा के परिप्रेक्ष्य में प्राचीन आगम-ग्रन्थों का सम्पादन डॉ० के० आर० चन्द्र जैन अर्धमागधी आगम ग्रन्थों में कुछ ऐसे ग्रन्थ हैं जिनकी रचना प्राचीन मानी जाती है, परन्तु उन ग्रन्थों की भाषा में अर्वाचीनता के भी दर्शन होते हैं । आगमों की अन्तिम वाचना पांचवींछठी शताब्दी में की गयी जब कि उनकी प्रथम वाचना का समय ई० पूर्व चौथो शताब्दी का माना जाता है । महावीर और बुद्ध समकालीन माने जाते हैं परन्तु उनके युग को भाषा से पालि भाषा के प्राचीनतम त्रिपिटक-ग्रन्थों और अर्द्धमागधी के प्राचीनतम आगम ग्रंथों की भाषा में बहुत अन्तर पाया जाता है, यहाँ तक कि सम्राट अशोक के शिलालेखों में, भाषा का जो स्वरूप प्राप्त होता है, उससे भी काफी विकसित रूप अर्द्धमागधी आगम-ग्रन्थों में उपलब्ध हो रहा है। होना ऐसा चाहिए था कि कम से कम प्राचीनतम जैन आगम ग्रन्थों में सम्राट अशोक के पहले का तथा प्रथम जैन वाचना के काल का यानि चौथी शताब्दी ई० पूर्व का भाषा-स्वरूप मिले परन्तु ऐसा नहीं है । भाषा की इस अवस्था का क्या कारण हो सकता है ? आगमोद्धारक पूज्यमुनि श्रीपुण्यविजय जी ने कल्पसूत्र की प्रस्तावना में स्पष्ट कहा है कि समय को गति के साथ-साथ चालू भाषा के प्रभाव के कारण पूर्व आचार्यों, उपाध्यायों और लेहियों ने उन ग्रन्थों में जाने-अनजाने भाषा-सम्बन्धी परिवर्तन किये हैं जो उनके शिष्य-अध्येताओं को अनुकल एवं सरल रहे होंगे। आगम-ग्रन्थों के शब्दों में वर्णविकार की जो बहुलता आज विभिन्न प्रतों में देखने को मिलती है वह इसी प्रवृत्ति का नतीजा है। इन विषमताओं के कारण आगमों के विभिन्न संस्करणों में एक ही शब्द के अनेक रूप अपनाये गये हैं। श्री शुब्रिग महोदय ने तो इस गुत्थी और उलझन से छुटकारा पाने के लिए और भाषा को एकरूपता देने के लिए मध्यवर्ती व्यंजनों का सर्वथा लोप ही कर दिया है चाहे चणि अथवा ग्रन्थ की प्रतों में इस प्रकार का साक्ष्य मिले या न भी मिले। वर्ण-विकार की दृष्टि से ही नहीं परन्तु रूप-विन्यास की दृष्टि से भी कई ऐसे स्थल मिलते हैं जहाँ पर प्राचीन के बदले में अर्वाचीन रूप अपनाये गये हैं। शुबिंग महोदय के सिवाय अन्य विद्वानों के संस्करणों में भी समानता एवं एकरूपता नहीं है । किसी में लोप अधिक है तो किसी में कम । श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित संस्करण में मध्यवर्ती व्यञ्जनों का लोप कम मात्रा में मिलता है परन्तु वहाँ के संस्करण में भी ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ पर मूल प्रतों एवं चूर्णि व टीका के आधार से अर्वाचीन की जगह पर प्राचीन शब्द या रूप स्वीकार किये जा सकते हैं। सम्पादन के नीति-विषयक नियमों में भी परिवर्तन की आवश्यकता प्रतीत होती है। यथा-अनेक प्रतियों में जो पाठ उपलब्ध हो उसे लिया जाय या प्राचीनतम प्रत में पाठ उपलब्ध हो उसे लिया जाय या चूर्णि का पाठ लिया जाय या टीकाकार का पाठ लिया जाय । अथवा भाषाकीय दृष्टि से जो रूप प्राचीन हो उसे अपनाया जाय ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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