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________________ दशरूपक और नाट्यदर्पण में रस-स्वरूप एवं निष्पत्ति : एक तुलनात्मक विवेचन १३१ विभाव आदि के साधारणीकृत हो जाने से अभिधा से भिन्न भावकत्व व्यापार के द्वारा रस भाव्यमान होता है। अनुभव एवं स्मृति आदि से विलक्षण, रजो एवं तमोगुण के अनुवेध से उत्पन्न विचित्रता के कारण द्रुति, विस्तार एवं विकास रूप सत्त्व के उद्रेक से प्रकाशमय, आनन्दमय एवं निजसंविद्विश्रान्ति रूप परब्रह्मास्वाद साविद्य भोजकत्व व्यापार से इनका भोग किया जाता है। व्यञ्जना का विरोध, अभिधा एवं भावकत्व व्यापार की स्वीकृति, रस एवं काव्य में भाष्यभावकभाव सम्बन्ध स्वीकार करना, रस की आनन्दात्मकता, विभाव आदि का साधारणीकरण और रसाश्रय के रूप में सामाजिक का कथन आदि तथ्यों के सम्बन्ध में धनञ्जय और भट्टनायक परस्पर सहमति रखते हैं। इसके विपरीत दोनों आचार्यों के दृष्टिकोणों में कतिपय विभिन्नताएँ भी हैं, यथाधनञ्जय द्वारा भोजकत्व व्यापार की अस्वीकृति, तात्पर्यवृत्ति के आधार पर वाक्यार्थ रूप रस की सत्ता-स्वीकृति, रस-स्वरूप के सम्बन्ध में रजो एवं तमो गुण तथा सत्त्वोद्रेक से उसकी प्रकाशमयता का कथन न करना, अनुकर्ता में भी रस की सम्भावना और सहृदय निष्ठ रस की स्पष्ट स्वीकृति आदि । भट्टनायक के सम्बन्ध में डॉ० प्रेमस्वरूप गुप्त यह सिद्ध करते हैं कि उनका यह भावकत्वव्यापार मीमांसा दर्शन पर आधारित है । अतः भावकत्व व्यापार की स्वीकृति के कारण धनञ्जय को भी इसका अपवाद स्वीकार नहीं किया जा सकता है । वस्तुतः मीमांसा में क्रिया को 'भावना' के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है, और 'भावना' शब्द का प्रयोग दशरूपक में भी प्राप्त होता है। साध्य की सिद्धि के अनुकूल व्यापार को 'भावना' कहा जाता है | शाब्दी एवं आर्थी रूप द्विविध 'भावना' में साध्य, साधन और इति कर्तव्यता अपेक्षित होते हैं । काव्य और नाट्य के प्रसङ्ग में रस साध्य, काव्य-भावना साधन और गुण, अलङ्कार, औचित्य एवं चतुर्विध अभिनय आदि इति कर्तव्यता के अन्तर्गत परिगणित किये जायेंगे। अतः धनञ्जय के रस-सिद्धान्त को अधिकांशतः मीमांसा दर्शन पर आधारित स्वीकार किया जा सकता है। अधिकांशतः इस अर्थ में कि उन्होंने रस के आनन्दमयत्व को स्वीकार किया है तथा उसको आत्मानन्द से उत्पन्न स्वाद भी कहा है। मीमांसा दर्शन में आत्मा की आनन्दात्मकता का निषेध किया गया है। वस्तुतः मीमांसा दर्शन में परस्पर विरोधी अनेक विचार धारायें हैं। भाट्टों का एक पक्ष मुक्तावस्था में आत्मा की आनन्दा १. तस्मात्काव्ये दोषाभाव गुणालङ्कारमयत्वलक्षणेन नाट्ये चतुर्विधाभिनयेरूपेण निविडनिजमोहसङ्कटकारिणा विभावादिसाधारणी करणात्मनाऽभिधातो द्वितीयेनांशेन रजस्तम.ऽनुवेध वैचित्र्य बलाद् द्रुतिविस्तार विकासलक्षणेन सत्वोद्रक प्रकाशानन्दमयनिजसंविद्विश्रान्तिलक्षणेन परब्रह्मास्वाद सविधेन भोगेन परं भुज्यत इति । अभि० भा० ( ना० शा० भाग-१) पृ० २७७ । २. रसगङ्गाधर का शास्त्रीय अध्ययन पृ. १४९ ।। ३. काव्या भावनास्वादो नर्तकस्य न वार्यते ॥ ४।४२ दश ४. भावना नाम भवितुर्भवनानुकूलो भावयितुर्व्यापार विशेषः। रसगङ्गाधार का शास्त्रीय अध्ययन, __ पृ० १४९ से उद्धृत । ५. साधारणीकरण : एक शास्त्रीय अध्ययन पृ०६९। '६. भारतीय दर्शन पृ० ३३४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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