SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० की अञ्जुम सैफी दोनों का निरूपण करते हैं । वास्तव में रस - निष्पत्ति की अपेक्षा रस-स्वरूप का उन्होंने अधिक सविस्तार विवेचन किया है । तथ्यात्मक दृष्टि से धनञ्जय और रामचन्द्र गुणचन्द्र की रस-विषयक अवधारणाओं में साम्य की अपेक्षा वैषम्य अधिक दृष्टिगोचर होता है । यद्यपि परवर्ती आचार्यों और वर्तमान आलोचकों द्वारा भी किसी सम्पूर्ण विचारधारा को आधिकारिक रूप में स्वीकृति प्राप्त नहीं हो सकी, तथापि मुख्यतः रामचन्द्र - गुणचन्द्र ने परम्परा से भिन्न अनेक नवीन तथ्यों का उन्मेष किया । धनञ्जय और रामचन्द्र गुणचन्द्र की यदि रसविषयक अवधारणाओं का विहङ्गावलोकन किया जाये तो स्पष्टतः दोनों दो भिन्न पृष्ठभूमियों पर आधारित प्रतीत होती हैं और तात्त्विक रूप में यही पृष्ठभूमियां उनमें दृष्टिगत अन्य विभिन्नताओं के मूल में सक्रिय रही हैं । धनञ्जय का रसविवेचन दार्शनिकता से अनुप्राणित रहा है और इसके विपरीत रामचन्द्र गुणचन्द्र की रस विषयक सम्पूर्ण विचारधारा लौकिक धरातल पर आधारित है । उन्होंने यद्यपि रस की लोकोत्तरता का कथन अवश्य किया है, तथापि यह लोकोत्तरता दार्शनिक लोकोत्तरता से पूर्णरूपेण भिन्न एवं पृथक, है । वे धनञ्जय की समस्त रसों की सुखात्मकता की मान्यता की भी कटु आलोचना करते हैं । धनञ्जय सम्मत रस की वाक्यार्थरूप सत्ता भी उनको अभिप्रेत नहीं है । इसी प्रकार रसों की सुखदुःखात्मकता, रस का लोकगत एवं काव्यगत तथा नियत विषयत्व एवं अनियत विषयत्व के रूप में इनका पुनर्विभाजन और लोकगत रस को स्वगतता एवं प्रत्यक्षता तथा काव्यगत रस को परगतता, परोक्षता एवं ध्यामलता आदि रामचन्द्र - गुणचन्द्र के अनेक मन्तव्य धनञ्जय और उनके दशरूपक की मूल प्रकृति के विपरीत प्रतीत होते हैं । धनञ्जय का रस - विवेचन दार्शनिक आधार पर प्रतिष्ठित है । उनके द्वारा भावकत्व व्यापार की स्वीकृति और आत्मानन्द से उत्पन्न स्वाद के रूप में रस का निर्देश इस तथ्य को पुष्ट करते हैं । अभिहितान्वयवादी मीमांसकों के सदृश वह भी तात्पर्याख्या वृत्ति को स्वीकार करते हैं। रस-सूत्र को दर्शन के आधार पर व्याख्यायित करने का सर्वप्रथम प्रयास भट्ट नायक के दृष्टिकोण में परिलक्षित होता है तथा इसकी पराकाष्ठा शैवाद्वेतवादी अभिनवगुप्त के विचारों में । अभिनवगुप्त और धनञ्जय का व्यक्तित्व लगभग समकालिक है । अतः उनके रस-विषयक विचारों में दार्शनिकता के सम्मिश्रण को तात्कालिक प्रवृत्ति का ही द्योतक कहा जा सकता है । सम्पूर्ण नाट्यशास्त्रीय परम्परा में मात्र रामचन्द्र - गुणचन्द्र ही ऐसे एकांकी विद्वान् रहे हैं, जिन्होंने रस के इस परम्परागत एवं सर्वमान्य दार्शनिक आवरण को छिन्न-भिन्न कर उसको व्यावहारिक एवं लौकिक धरातल से सम्बद्ध करने का अपूर्व साहसिक एवं श्लाघ्य प्रयास किया । वस्तुतः यदि नाट्यशास्त्र की भट्ट लोल्लट प्रभृति कृत परवर्ती व्याख्याओं पर दृष्टिपात किया जाये तो हम धनञ्जय की रस से सम्बद्ध अवधारणा को भट्ट नायक की व्याख्या के सर्वाधिक निकट पाते हैं । पी० वी० काणे ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है । यद्यपि भट्टनायक का वर्तमान समय में कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ प्राप्त नहीं है, तथापि अभिनवभारती सहित परवर्ती अनेक ग्रन्थों में उनके विचारों को प्रस्तुत किया गया है। भट्टनायक के अनुसार काव्य दोषों के अभाव एवं गुणों के सद्भाव और नाट्य में वाचिक आदि चतुविध अभिनय से निज निविड मोह सङ्कटता के निवारक १. हिस्ट्री ऑफ संस्कृत पोयटिक्स : पी० वी० काणे, पृ० २४८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy