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________________ व्यावहारिक जीवन में नाम, रूप, स्थापना और प्रतीक १२१ इस प्रकार दिशा की कोई निश्चित सीमा नहीं है। वह वस्तु सापेक्ष है, स्वतन्त्र नहीं; फिर भी इस अनिश्चित एवं असत् बुद्धि विकल्प की स्वीकृति के बिना व्यवहार-शृंखला की कई कड़ियां टूट जाती हैं । पारमार्थिक सत्ता की अन्ध श्रद्धा से विवेक-हीन होकर व्यावहारिक सत्ता की उपेक्षा कभी नहीं करनी चाहिये । स्थापना असत् होने पर भी व्यवहार में सत्य से कम महत्त्व नहीं रखतो है। जैन शास्त्रों में सत्य के दस भेद उल्लिखित हैं, जिनमें नाम, रूप और स्थापना को भी व्यावहारिक रूप से सत्य स्वीकार किया गया है। जो वस्तु जिस रूप में नहीं है, किसी प्रयोजन से उसे उस रूप में मान लेना स्थापना है। है। इसके मुल में समष्टि और व्यष्टि-दोनों की इच्छायें संभव हैं। किसी द्रव्य की जिस भिन्न द्रव्य पर स्थापना की जाती है, वह उस द्रव्य का प्रतीक बन जाता है और उसमें व्यवहार सम्पादन की अपूर्व शक्ति उत्पन्न हो जाती है । मंगल का कोई आकार नहीं है, फिर भी रसाल पल्लव, दधि, दूर्वा हरिद्रा, पुष्प, अक्षत, सिन्दूर, नैवेद्य, गोरोचन, कस्तूरी आदि मंगल प्रतीक हैं, क्योंकि उनमें मंगल स्थापना है। श्रद्धेय के गले में पुष्पमाला डाल देने पर उसे क्या मिल जाता है ? उसकी अपेक्षा पेट भर लड्डू खिला देने पर अधिक तृप्ति संभव है। परन्तु नहीं, पुष्प हमारी श्रद्धा, भक्ति, पूजा, निष्ठा और प्रतिष्ठा का कोमल प्रतीक है। भले ही पुष्प-माला पहनने से पेट न भरे, परन्तु हृदय कृतज्ञता से अवश्य अभिभूत हो उठता है। पुष्पों में भी मंगल-स्थापना सर्वत्र नहीं है। कोहड़ा, लौकी, बैगन और तरोई प्रभृति वनस्पतियों के पुष्पों को मांगल्य नहीं माना गया है। स्वस्तिक चिह्न और चतुष्क में कौन सा मंगल मतिमान होकर बैठा है परन्तु प्रत्येक शभ कार्य में इनकी रचना की जाती है। काले झंडे का अर्थ किसी का अपमान नहीं है, लाल झंडी का अर्थ ट्रेन का रुकना नहीं है और हरी झंडी का अर्थ ट्रेन का चलना नहीं है, परन्तु काला झंडा दिखाने वालों पर लाठी चार्ज होता है, लाल झंडी दिखाने पर ट्रेन रुक जाती है और हरी झंडी दिखाने पर चलने लगती है। हम राष्ट्रध्वज को झुककर प्रणाम करते हैं । वह एक साधारण वस्त्र होने पर भी राष्ट्रीय ऐक्य और प्रतिष्ठा का प्रतीक है। प्राचीन काल में पंचायतों के पंचों के पास कौन सी सेना रहती थी? एक साधारण और निर्बल मनुष्य भी दण्डाधिकारी का प्रतीक बनकर जो भी दण्ड दे देता था, वही सबको स्वीकार्य होता था। रामलीला और नाटक में न तो सचमुच सीताहरण होता है और न राम विलाप ही करते हैं। हरण भी कल्पित है और विलाप भी कल्पित है, दर्शक इस तथ्य को जानता भी है, परन्तु उसकी आँखें सजल हो उठती हैं। यह है प्रतीक की महिमा । साहित्य में अन्योक्ति और रूपकातिशयोक्ति अलंकारों के आधार प्रतीक ही हैं। ऋग्वेद का 'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते' इत्यादि मन्त्र प्रतीकों की अपरिहार्यता का प्रमाण है । सुपर्ण पक्षी का अभिधान है और वृक्ष पेड़ का । मन्त्र में ये शब्द जीव, परमात्मा और जगत् के प्रत्यायक हैं । सन्त कबीर ने “साँच बराबर तप नही, झूठ बराबर पाप' कह कर सत्य को सर्वश्रेष्ठ तप और झूठ को सर्वश्रेष्ठ पाप घोषित किया था, परन्तु व्यवहार में असत् प्रतीकों की परिधि को वे भी नहीं लांघ पाये १. दशविधः खलु सत्य सद्भावः-नाम-रूप-स्थापना-प्रतीत्य-संवृति-संयोजना-जनपद-देश-भाव-समयसत्यभेदेन । षट्खण्डागम-(धवला ) सन्तपरूवणानुयोगद्वार, १।१।२, पृ० ११७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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