SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन* भाग- १,२ समीक्षक डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव ख्यातयशा जैन मनीषी डॉ० सागरमल जैन श्रमण वाङ्मय के उदारवादी चिन्तकों में धुरिकीर्तनीय हैं। उनकी पूर्वाग्रहरहित आन्वीक्षिकी और निष्प्रतिबद्ध शोध-सूक्ष्मेक्षिका ने जैन चिन्तन को व्यापक धरातल प्रदान किया है उनकी चिन्तन दृष्टि निरन्तर समन्वयात्मक तथा तुलनामूलक रहती है। उनकी सैद्धान्तिक अवधारणा है: - पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। डॉ० सागरमलजी के इस सिद्धान्त का आक्षरिक साक्ष्य है उनके द्वारा लिखित तथा दो भागों में प्रकाशित बृहत्कृति- 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' इस कृति से विद्वान् लेखक के भ्रमण और ब्राह्मण वाड्मय के आधिकारिक ज्ञान तथा समेकित शोध अनुशीलन की सूचना मिलती है। डॉ० सागरमलजी की विलक्षण मनीषा उनकी विस्मयकारी शास्त्र विचक्षणता की परिचायिका है। - इस कृति के प्रथम भाग में आचार दर्शन के सैद्धान्तिक पक्ष का और द्वितीय भाग में आचार के व्यावहारिक पक्ष का पुंखानुपुंख विवेचन किया गया है। दोनों भागों के विवेचनीय विषय को तीन-तीन खण्डों में उपस्थापित किया गया है। प्रथम भाग में डॉ० सागरमलजी ने सर्वप्रथम भारतीय आचार दर्शन के स्वरूप पर प्रकाश निक्षेप किया है। तदनन्तर, भारतीय आचार दर्शन में प्राप्य ज्ञान की विधाओं का विशद विश्लेषण उपन्यस्त किया है। पुनः निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता से सन्दर्भित पाश्चात्य एवं भारतीय दृष्टिकोणों के वैशिष्ट्य की समुद्भावना की है। उसके बाद नैतिक निर्णय के स्वरूप एवं विषय का वैदुष्यपूर्ण ढंग से तुलनात्मक अध्ययन किया है। इसी क्रम में डॉ० सागरमलजी ने भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त तथा आचार-दर्शन के बहु-आयामी विवेचन में अपनी बहुपधीन प्रज्ञा का परिचय दिया है। जैन धर्म दर्शन का पल्लवन करते हुए उन्होंने आत्मा, कर्म, बन्धन और उससे मुक्ति और फिर मोक्षतत्त्व को नैतिक जीवन का साध्य मानते हुए उस पर गहन चिन्तन किया है। पुनः जैन आचार दर्शन के मनोवैज्ञानिक पक्ष का भाष्य करते हुए उन्होंने मन के स्वरूप तथा नैतिक जीवन में उसके मूल्य को रेखांकित किया है और मन के चिन्तन के क्रम में ही मनोवृत्तियों की भी विस्तृत विवेचना की है। इस प्रकार, बहुश्रुत लेखक डॉ० सागरमलजी ने पूरे जैन धर्म दर्शन की अवतारणा में अपनी अभिनव शास्त्रीय दृष्टि का चमत्कार प्रदर्शित किया है। - Jain Education International - ग्रन्थ के द्वितीय भाग में समत्व योग, त्रिविध साधनामार्ग, अविद्या, रत्नत्रय निवृत्ति और प्रवृत्ति का मार्ग आदि ज्ञानमग्य गूढ़ विषयों का तुलनात्मक अध्ययन शास्त्रोक्त पद्धति से किया गया है। साथ ही, भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना जैसे विषय के वर्णन से भारतीय दर्शन की प्रासंगिकता को भी चिह्नित किया गया है। इसके अतिरिक्त, वर्णाश्रम व्यवस्था, गृहस्थ धर्म, श्रमण-धर्म जैसे सदातन धार्मिक प्रसंगों की विसंवादिता को समाजचिन्तक दार्शनिक लेखक ने संवादी बनाने का श्लाघनीय और अभूतपूर्व सारस्वत प्रयास किया है। - इस अपूर्व ग्रन्थ का 'उपसंहार' भी केवल औपचारिक नहीं है। इसमें अवितथवादी प्रज्ञावान लेखक डॉ० सागरमलजी ने महावीर युग की आचार दर्शन सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के क्रम में जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है। महावीर को चार विभिन्न तात्त्विक आधारों पर खड़े चार दार्शनिक मतवादों से जूझना पड़ा था। प्रथम क्रियावादी दृष्टिकोण आचार के बाह्य पक्षों पर बल देकर कर्मकाण्डीय नियमों को ही नैतिकता का सर्वस्व मानता था। द्वितीय, अक्रियावादी दृष्टिकोण था जिसके अनुसार ज्ञान ही नैतिकता का सर्वस्व था। आत्मा को कूटस्थ और अकर्त्ता मानने वाले अक्रियाबाद का दृष्टिकोण मूलतः नियतिवादी था। तीसरा मतवाद अज्ञानवादियों का था, जिसमें अतीन्द्रिय एवं पारलौकिक मान्यताओं पर आधृत नैतिक प्रत्ययों को अज्ञेय माना जाता था। इस प्रकार, इसका नैतिक दर्शन रहस्यवाद और सन्देहवाद इन दो रूपों में विभाजित था। इन तीनों दार्शनिक परम्पराओं के अतिरिक्त चौथी परम्परा विनयवादियों की थी। विनयवाद भक्तिवाद का ही पर्याय था। महावीर ने अपने अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के आधार पर इन चारों दृष्टिकोणों में समन्वय खोजने का ऐतिहासिक कार्य किया, यद्यपि सन्देहवाद महावीर को किसी भी अर्थ में स्वीकृत नहीं था। इस तत्त्व को डॉ० सागरमलजी ने अनेक भंगियों से मूल्यांकित किया है, जिससे इस कृति का 'उपसंहार' भी स्वतन्त्र अध्याय का महत्त्व रखता है। * प्रकाशक- राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर, १९८२ मूल्य रु ७० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy