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________________ ६९२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ लिये दुर्बोध ही था। व्याकरण के अध्ययन की नई, सहज एवं बोधगम्य जाने के उद्देश्य का पता चला तो, न केवल वे पाटण से प्रस्थान कर प्रणाली को जन्म देने का श्रेय हेमचन्द्र को है। वह हेमचन्द्र का ही प्रभाव गए अपितु उन्होंने अपने शिष्य को अध्यात्म साधना से विमुख हो था कि परवर्तीकाल में ब्राह्मण परम्परा में इसी पद्धति को आधार बनाकर लोकैषणा में पड़ने का उलाहना भी दिया और कहा कि लौकिक प्रतिष्ठा ग्रन्थ लिये गए और पाणिनि के अष्टाध्यायी की प्रणाली पठन-पाठन से अर्जित करने की अपेक्षा पारलौकिक प्रतिष्ठा के लिये भी कुछ प्रयत्न करो। धीरे-धीरे उपेक्षित हो गयी। हेमचन्द्र के व्याकरण की एक विशेषता तो जैनधर्म की ऐसी प्रभावना भी जिसके कारण तुम्हारा अपना आध्यात्मिक यह है कि आचार्य ने स्वयं उसकी वृत्ति में कतिपय शिक्षा-सूत्रों को उद्धृत विकास ही कुंठित हो जाय तुम्हारे लिये किस काम की? कहा जाता है किया है। उनके व्याकरण की दूसरी विशेषता यह है कि उनमें संस्कृत कि गुरु के इस उलाहने से हेमचन्द्र को अपनी मिथ्या महत्त्वाकांक्षा का के साथ-साथ प्राकृत के व्याकरण भी दिये गए हैं। व्याकरण के समान बोध हुआ और वे अन्तर्मुख हो अध्यात्म साधना की ओर प्रेरित हुए।१६ ही उनके कोशग्रन्थ, काव्यानुशासन और छन्दानुशासन जैसे साहित्यिक वे यह विचार करने लगे कि मैंने लोकैषणा में पड़कर न केवल अपने सिद्धान्त-ग्रन्थ भी अपना महत्त्व रखते हैं। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित और आपको साधना से विमुख किया अपितु गुरु की साधना में भी विघ्न डाला। परिशिष्ट पर्व के रूप में उन्होंने जैनधर्म की पौराणिक और ऐतिहासिक पश्चाताप की यह पीड़ा हेमचन्द्र की आत्मा को बराबर कचोटती रही जो सामग्री का जो संकलन किया है, वह भी निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है। यहाँ इस तथ्य की सूचक है कि हेमचन्द्र मात्र साहित्यकार या राजगुरु ही नहीं उनकी योग शास्त्र, प्रमाणमीमांसा आदि सभी कृतियों का मूल्यांकन सम्भव थे अपितु आध्यात्मिक साधक भी थे। नहीं है, किन्तु परवर्ती साहित्यकारों द्वारा किया गया उनका अनुकरण इस वस्तुत: हेमचन्द्र का व्यक्तित्व इतना व्यापक और महान है कि बात को सिद्ध करता है कि उनकी प्रतिभा से न केवल उनका शिष्यमण्डल उसे समग्रत: शब्दों की सीमा में बाँध पाना सम्भव नहीं है। मात्र यही नहीं, अपितु परवर्ती जैन या जैनेतर विद्वान् भी प्रभावित हुए। मुनि श्री उस युग में रहकर उन्होंने जो कुछ सोचा और कहा था वह आज भी पुण्यविजयजी ने हेमचन्द्र की समग्र कृतियों का जो श्लोक-परिमाण दिया प्रासंगिक है। काश! हम उनके महान् व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर हिंसा, है, उससे पता लगता है कि उन्होंने दो लाख श्लोक-परिमाण साहित्य वैमनस्य और संघर्ष की वर्तमान त्रासदी से भारत को बचा सकते। की रचना की है जो उनकी सृजनधर्मिता के महत्त्व को स्पष्ट करती है। साधक हेमचन्द्र सन्दर्भ हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि एक महान् साहित्यकार और १. हेमचन्द्राचार्य (पं० बेचरदास जीवराज दोशी), पृ० १२३. प्रभावशाली राजगुरु होते हुए भी मूलत: हेमचन्द्र एक आध्यात्मिक साधक २. आचार्य हेमचन्द्र (वि० भा० मुसलगांवकर), पृ० १९१. थे। यद्यपि हेमचन्द्र का अधिकांश जीवन साहित्य-सृजन के साथ-साथ ३. देखें : महादेवस्तोत्र (आत्मानन्द सभा, भावनगर), पृ० १-१६ गुजरात में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार तथा वहाँ की राजनीति में अपने प्रभाव महादेवस्तोत्र, पृ० ४४. को यथावत् बनाये रखने में बीता, किन्तु कालान्तर में गुरु से उलाहना योगशास्त्र, २/९. पाकरहेमचन्द्र की प्रसुप्त अध्यात्मनिष्ठा पुन: जाग्रत् हो गई थी। कुमारपाल ६. वही, २/१०. ने जब हेमचन्द्र से अपनी कीर्ति को अमर करने का उपाय पूछा तो उन्होंने ७. वही, २/१३. दो उपाय बताए- १. सोमनाथ के मन्दिर का जीर्णोद्वार और २. समस्त ८. वही, १/४०. देश को ऋणमुक्त करके विक्रमादित्य के समान अपना संवत् चलाना। ९. हेमचन्द्राचार्य, पृ० ५३-५६. कुमारपाल को दूसरा उपाय अधिक उपयुक्त लगा किन्तु समस्त देश को १०. देखें : महावीरचरित्र (हेमचन्द्र), ६५-७५ (कुमारपाल के सम्बन्ध ऋणमुक्त करने के लिये जितने धन की आवश्यकता थी, उतना उसके में महावीर की भविष्यवाणी). पास नहीं था, अत: उसने गुरु हेमचन्द्र से धन-प्राप्ति का उपाय पूछा। ११. योगशास्त्र, २/८४-८५. इस समस्या के समाधान हेतु यह उपाय सोचा गया कि हेमचन्द्र के गुरु १२. हेमचन्द्राचार्य, पृ० ७७. देवचन्द्रसूरि को पाटन बुल वाया जाए और उन्हें जो स्वर्णसिद्धि विद्या प्राप्त १३. वही, पृ० १०१-१०४. है उसके द्वारा अपार स्वर्णराशि प्राप्त करके समस्त प्रजा को ऋणमुक्त १४. योगशास्त्र, १/४७-५६. किया जाए। राजा, अपने प्रिय शिष्य हेमचन्द्र और पाटन के श्रावकों के १५. देखें : आचार्य हेमचन्द्र (वि०भा० मुसलगांवकर), अध्याय ७. आग्रह पर देवचन्द्रसूरि पाटण आए किन्तु जब उन्हें अपने पाटण बुलाए १६. हेमचन्द्राचार्य, पृ० १३-१७८. ५. वागा Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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