SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 806
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ एवं मानसिक शान्ति को भंग करने वाला है। वह ज्ञान का अभिमान योग्यता के आधार पर है। जिस प्रकार वैद्य अलग-अलग व्यक्तियों को उत्पन्न करने के कारण भाव-शत्रु है। इसलिए मुक्ति के इच्छुक को तर्क उनकी प्रकृति की भिन्नता और रोग की भिन्नता के आधार पर अलगके वाग्जाल से अपने को मुक्त रखना चाहिए ।२१ वस्तुत: वे सम्यग्ज्ञान अलग औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार महात्माजन भी संसाररूपी और तर्क में एक अन्तर स्थापित करते हैं। तर्क केवल विकल्पों का व्याधि हरण करने हेतु साधकों की प्रकृति के अनुरूप साधना की भिन्नसृजन करता है, अत: उनकी दृष्टि में निरी तार्किकता आध्यात्मिक भिन्न विधियाँ बताते हैं ।२५ वे पुन: कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश की विकास में बाधक ही है। 'शास्त्र- वार्तासमुच्चय' में उन्होंने धर्म के दो भिन्नता, उपासकों की प्रकृतिगत भिन्नता अथवा देशकालगत भिन्नता के विभाग किये हैं- एक संज्ञान-योग और दूसरा पुण्य-लक्षण ।२२ ज्ञानयोग आधार पर होकर तत्त्वत: एक ही होती है ।२६ वस्तुत: विषय-वासनाओं वस्तुतः शाश्वत सत्यों की अपरोक्षानुभूति है और इस प्रकार वह तार्किक से आक्रान्त लोगों के द्वारा ऋषियों की साधनागत विविधता के आधार ज्ञान से भिन्न है। हरिभद्र के अनुसार अन्धश्रद्धा से मुक्त होने के लिए पर स्वयं धर्म-साधना की उपादेयता पर कोई प्रश्नचिह्न लगाना अनुचित तर्क एवं युक्ति को सत्य का गवेषक होना चाहिए, न कि खण्डन- ही है। वस्तुत: हरिभद्र की मान्यता यह है कि धर्म-साधना के क्षेत्र में बाह्य मण्डनात्मक । खण्डन-मण्डनात्मक तर्क या युक्ति साधना के क्षेत्र में आचारगत भिन्नता या उपास्य की नामगत भिन्नता बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं उपयोगी नहीं है, इस तथ्य की विस्तृत चर्चा उन्होंने अपने ग्रन्थ है। महत्त्वपूर्ण यह है कि व्यक्ति अपने जीवन में वासनाओं का कितना योगदृष्टिसमुच्चय में की है ।२३ इसी प्रकार धार्मिक आचार को भी वे शमन कर सका है, उसकी कषायें कितनी शान्त हुई हैं और उसके शुष्क कर्मकाण्ड से पृथक् रखना चाहते हैं। यद्यपि हरिभद्र ने कर्मकाण्डपरक जीवन में समभाव और अनासक्ति कितनी सधी है। ग्रन्थ लिखे हैं, किन्तु पं० सुखलाल संघवी ने प्रतिष्ठाकल्प आदि को हरिभद्र द्वारा रचित मानने में सन्देह व्यक्त किया है। हरिभद्र के समस्त मोक्ष के सम्बन्ध में उदार दृष्टिकोण उपदेशात्मक साहित्य, श्रावक एवं मुनि-आचार से सम्बन्धित साहित्य हरिभद्र अन्य धर्माचार्यों के समान यह अभिनिवेश नहीं रखते को देखने से ऐसा लगता है कि वे धार्मिक जीवन के लिए सदाचार पर हैं कि मुक्ति केवल हमारी साधना-पद्धति या हमारे धर्म से ही होगी। ही अधिक बल देते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थों में आचार सम्बन्धी जिन बातों उनकी दृष्टि में मुक्ति केवल हमारे धर्म में है- ऐसी अवधारणा ही भ्रान्त का निर्देश किया है वे भी मुख्यतया व्यक्ति की चारित्रिक निर्मलता और है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि कषायों के उपशमन के निमित्त ही हैं। जीवन में कषायें उपशान्त हों, नासाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। समभाव सधे यही उनकी दृष्टि में साधना का मुख्य उद्देश्य है। धर्म के न पक्षसेवाश्रयेन मुक्ति, कषाय मुक्ति किल मुक्तिरेव।। नाम पर पनपने वाले थोथे कर्मकाण्ड एवं छद्य जीवन की उन्होंने खुलकर अर्थात् मुक्ति न तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है, न दिगम्बर निन्दा की है और मुनिवेश में ऐहिकता का पोषण करने वालों को आड़े रहने से, तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो हाथों लिया है, उनकी दृष्टि में धर्म साधना का अर्थ है सकती। किसी एक सिद्धान्त विशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्ति अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है। मुक्ति तो वस्तुत: कषायों मोक्षेण योजनाद्योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है । वे स्पष्ट रूप - योगबिन्दु, ३१ से इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि मुक्ति का आधार कोई धर्म, साधनागत विविधता में एकता का दर्शन सम्प्रदाय अथवा विशेष वेशभूषा नहीं है । वस्तुत: जो व्यक्ति समभाव धर्म साधना के क्षेत्र में उपलब्ध विविधताओं का भी उन्होंने की साधना करेगा, वीतराग दशा को प्राप्त करेगा, वह मुक्त होगा। उनके सम्यक् समाधान खोजा है। जिस प्रकार 'गीता' में विविध देवों की शब्दों मेंउपासना को युक्तिसंगत सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है, उसी प्रकार सेयंबरोय आसंबरो य बुद्धो य अहव अण्णो वा । हरिभद्र ने भी साधनागत विविधताओं के बीच एक समन्वय स्थापित समभावभावि अप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ।। करने का प्रयास किया है। वे लिखते हैं कि जिस प्रकार राजा के विभिन्न अर्थात् जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष सेवक अपने आचार और व्यवहार में अलग-अलग होकर भी राजा के को प्राप्त करेगा, फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो सेवक हैं- उसी प्रकार सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित आचार-पद्धतियाँ बाह्यतः या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो। भिन्न-भिन्न होकर भी तत्त्वतः एक ही हैं। सर्वज्ञों की देशना में नाम आदि का भेद होता है, तत्त्वत: भेद नहीं होता है ।२४ साधना के क्षेत्र में उपास्य का नाम-भेद महत्त्वपूर्ण नहीं हरिभद्र की दृष्टि में आचारगत और साधनागत जो भिन्नता है हरिभद्र की दृष्टि में आराध्य के नाम-भेदों को लेकर धर्म के वह मुख्य रूप से दो आधारों पर है। एक साधकों की रुचिगत विभिन्नता के क्षेत्र में विवाद करना उचित नहीं है। लोकतत्त्वनिर्णय में वे कहते हैंआधार पर और दूसरी नामों की भिन्नता के आधार पर। वे स्पष्ट रूप से यस्य अनिखिलाश्च दोषा न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश में जो भिन्नता है वह उपासकों की ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy