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________________ समदर्शी आचार्य हरिभद्र ६७३ अनैकान्तिक एवं समन्वयात्मक दृष्टि के कारण अन्य दर्शनों के गम्भीर के समर्थक हैं किन्तु अन्धविश्वासों एवं मिथ्या मान्यताओं के वे कठोर अध्ययन की परम्परा का विकास सर्वप्रथम जैन दार्शनिकों ने ही किया समीक्षक भी । है। ऐसा लगता है कि हरिभद्र ने समालोच्य प्रत्येक दर्शन का ईमानदारीपूर्वक गम्भीर अध्ययन किया था, क्योंकि इसके बिना वे न तो उन दर्शनों में तर्क या बुद्धिवाद का समर्थन निहित सत्यों को समझा सकते थे, न उनकी स्वस्थ समीक्षा ही कर हरिभद्र में यद्यपि एक धार्मिक की श्रद्धा है किन्तु वे श्रद्धा को सकते थे और न उनका जैन मन्तव्यों के साथ समन्वय कर सकते थे। तर्क-विरोधी नहीं मानते हैं। उनके लिए तर्करहित श्रद्धा उपादेय नहीं है। हरिभद्र अन्य दर्शनों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु उन्होंने वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि न तो महावीर के प्रति मेरा कोई राग है उनके कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों पर तटस्थ भाव से टीकाएँ भी लिखीं । दिङ्नाग और न कपिल आदि के प्रति कोई द्वेष ही है - के 'न्यायप्रवेश' पर उनकी टीका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है । पतञ्जलि के पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । 'योगसूत्र' का उनका अध्ययन भी काफी गम्भीर प्रतीत होता है क्योंकि युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। उन्होंने उसी के आधार पर एवं नवीन दृष्टिकोण से योगदृष्टिसमुच्चय, - लोकतत्त्वनिर्णय, ३८ योगबिन्दु, योगविंशिका आदि ग्रन्थों की रचना की थी। इस प्रकार हरिभद्र उनके कहने का तात्पर्य यही है कि सत्य के गवेषक और - जैन और जैनेतर परम्पराओं के एक ईमानदार अध्येता एवं व्याख्याकार साधना के पथिक को पूर्वाग्रहों से युक्त होकर विभिन्न मान्यताओं की भी हैं । जिस प्रकार प्रशस्तपाद ने दर्शन ग्रन्थों की टीका लिखते समय समीक्षा करनी चाहिए और उनमें जो भी युक्ति संगत लगे उसे स्वीकार तद्-तद् दर्शनों के मन्तव्यों का अनुसरण करते हुए तटस्थ भार रखा, करना चाहिए । यद्यपि इसके साथ ही वे बुद्धिवाद से पनपने वाले दोषों उसी प्रकार हरिभद्र ने भी इतर परम्पराओं का विवेचन करते समय तटस्थ के प्रति भी सचेष्ट हैं। वे स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि युक्ति और तर्क भाव रखा है। का उपयोग केवल अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए ही नहीं किया जाना चाहिये, अपितु सत्य की खोज के लिए किया जाना चाहिएअन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन आग्रही वत निनीषति युक्तिं तत्र यत्र तस्य मतिर्निविष्टा । यद्यपि हरिभद्र अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक परम्पराओं के प्रति निष्पक्षपातस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र तस्य मतिरेति निवेशम् ।। एक उदार और सहिष्णु दृष्टिकोण को लेकर चलते हैं, किन्तु इसका आग्रही व्यक्ति अपनी युक्ति (तर्क) का भी प्रयोग वहीं करता तात्पर्य यह नहीं है कि वे उनके अतर्कसंगत अन्धविश्वासों को प्रश्रय देते है जिसे वह सिद्ध अथवा खण्डित करना चाहता है, जबकि अनाग्रही या हैं। एक ओर वे अन्य परम्पराओं के प्रति आदरभाव रखते हुए उनमें निष्पक्ष व्यक्ति जो उसे युक्तिसंगत लगता है, उसे स्वीकार करता है । इस निहित सत्यों को स्वीकार करते हैं, तो दूसरी ओर उनमें पल रहे प्रकार हरिभद्र न केवल युक्ति या तर्क के समर्थक हैं किन्तु वे यह भी अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन भी करते हैं । इस दृष्टि से उनकी स्पष्ट करते हैं कि तर्क या युक्ति का प्रयोग अपनी मान्यताओं की पुष्टि दो रचनाएँ बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं- (१) धूर्ताख्यान और या अपने विरोधी मान्यताओं के खण्डन के लिये न करके सत्य की (२) द्विजवदनचपेटिका । 'धूर्ताख्यान' में उन्होंने पौराणिक परम्पराओं में गवेषणा के लिये करना चाहिए और जहाँ भी सत्य परिलक्षित हो उसे पल रहे अन्धविश्वासों का सचोट निरसन किया है। हरिभद्र ने धूर्ताख्यान में स्वीकार करना चाहिए । इस प्रकार वे शुष्क तार्किक न होकर सत्यनिष्ठ वैदिक परम्परा में विकसित इस धारणा का खण्डन किया है कि ब्रह्मा के मुख तार्किक हैं। से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, पेट से वैश्य तथा पैर से शूद्र उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार कुछ पौराणिक मान्यताओं यथा-शंकर के द्वारा अपनी जटाओं कर्मकाण्ड के स्थान पर सदाचार पर बल में गंगा को समा लेना, वायु के द्वारा हनुमान का जन्म, सूर्य के द्वारा कुन्ती हरिभद्र की एक विशेषता यह है कि उन्होंने धर्म साधना को से कर्ण का जन्म, हनुमान के द्वारा पूरे पर्वत को उठा लाना, वानरों के द्वारा कर्मकाण्ड के स्थान पर आध्यात्मिक पवित्रता और चारित्रिक निर्मलता के सेतु बाँधना, श्रीकृष्ण के द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण करना, गणेश का पार्वती साथ जोड़ने का प्रयास किया है। यद्यपि जैन परम्परा में साधना के अंगों के शरीर के मैल से उत्पन्न होना, पार्वती का हिमालय की पुत्री होना आदि के रूप में दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान और चारित्र (शील) को स्वीकार किया अनेक पौराणिक मान्यताओं का व्यंग्यात्मक शैली में निरसन किया है। गया है। हरिभद्र भी धर्म-साधना के क्षेत्र में इन तीनों का स्थान स्वीकार करते हरिभद्र धूर्ताख्यान की कथा के माध्यम से कुछ काल्पनिक बातें प्रस्तुत करते हैं किन्तु वे यह मानते हैं कि न तो श्रद्धा को अन्धश्रद्धा बनना चाहिए, न हैं और फिर कहते हैं कि यदि पुराणों में कही गयी उपर्युक्त बातें सत्य हैं ज्ञान को कुतर्क आश्रित होना चाहिए और न आचार को केवल बाह्यकर्मकाण्डों तो ये सत्य क्यों नहीं हो सकतीं । इस प्रकार धूर्ताख्यान में वे व्यंग्यात्मक तक सीमित रखना चाहिए । वे कहते हैं कि 'जिन' पर मेरी श्रद्धा का कारण किन्तु शिष्ट शैली में पौराणिक मिथ्या-विश्वासों की समीक्षा करते हैं । इसी राग-भाव नहीं है, अपितु उनके उपदेश की युक्तिसंगतता है। इस प्रकार वे प्रकार द्विजवदनचपेटिका में भी उन्होंने ब्राह्मण परम्परा में पल रही मिथ्या- श्रद्धा के साथ बुद्धि को जोड़ते हैं, किन्तु निरा तर्क भी उन्हें इष्ट नहीं है। धारणाओं एवं वर्ण-व्यवस्था का सचोट खण्डन किया है । हरिभद्र सत्य वे कहते हैं कि तर्क का वाग्जाल वस्तुत: एक विकृति है जो हमारी श्रद्धा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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