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________________ जैन एकता का प्रश्न ५८९ धारणाओं को त्याग कर एक सूत्र में बँध जाएँगें । का एक न्यायाधिकरण (पंचायत) बना दिया जाए और सभी विवाद उसे ___ जैन समाज में और विशेषरूप से स्थानकवासी समाज में अभी सुपुर्द कर दिये जायें । वह विवादों के तथ्यों की समीक्षा करके अन्त में भी कुछ ऐसे आचार्य एवं प्रमुख मुनिगण हैं जो दूसरे सम्प्रदाय के जो निर्णय दे, उसे मान्य कर लिया जाए । मूर्ति और मन्दिर सम्बन्धी आचार्यों एवं मुनियों के साथ बैठने, प्रवचन देने, उनसे विचार-चर्चा निर्णयों में जैसा कि पूर्व में तीर्थंकर के सम्पादक डॉ० नेमीचंदजी ने करने में अपने सम्यक्त्व की हानि समझते हैं । हमारा अहं एक पाट सूचित किया था - पुरातत्त्वविदों की सहायता ली जा सकती है। स्पष्ट से भी सन्तुष्ट नहीं होता-पाट पर पाट लगाया जाता हैं जबकि कहीं एवं तथ्यात्मक साक्ष्यों के आधार पर जिन विवादों का निराकरण सम्भव आर्यिकाओं को और कहीं तो सामान्य मुनियों को भी उनके सम्मुख भूमि न हो, उनके सम्बन्ध में विभाजन की नीति अपना ली जाए । इस सम्बन्ध पर बैठना होता हैं । अनेक में यह ललक होती है कि दूसरे समाज के में यदि दोनों सम्प्रदाय के लोग उदारदृष्टि का परिचय दें, तो यह प्रतिष्ठित आचार्य, विद्वान् और राजनेता उनके समीप तो आयें किन्तु उन्हें असम्भव नहीं है । बराबरी का आसन देने में हम संकोच का अनुभव करते हैं । अनेक बार (२) परस्पर एक दूसरे की आलोचना, पर्चेबाजी या एक दूसरे ऐसी घटनाएँ आलोचना का विषय बनी हैं और उन्होंने पारस्परिक के विरुद्ध समाचार पत्रों में लेखन बन्द कर दिया जाए। वैमनस्य की खाई को अधिक चौड़ा किया है। अपने को सम्यक्तवी (३) विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों के पारस्परिक मिलन एवं अपने को संयती (साधु) और दूसरे को असंयती (साधु), अपने को सामूहिक प्रवचनों के लिए प्रयास किये जाएँ । वे मिलन के समय एक शुद्धाचारी और दूसरों को शिथिलाचारी मानना या कहना भी भावात्मकता. दूसरे को समान भाव से आदर प्रदान करें। प्रवचन मंच पर सभी को की सबसे बड़ी बाधा है, अत: इस दृष्टि को सबसे पहले छोड़ना होगा। बराबरी का स्थान दिया जाए। मुनि आचार में तरतमता महावीर से लेकर आज तक रही है और भविष्य (४) महावीर जयन्ती, क्षमापना आदि पर्यों को सामूहिक रूप में भी रहेंगी। किन्तु व्यावहारिक जीवन में यदि इस आधार पर भेदभाव से मनाया जाये । पर्व-तिथियों, संवत्सरी आदि की एकरूपता का प्रयत्न किया जाएगा, तो सामाजिक एकता खण्डित होगी । क्या एक ही किया जाये। सम्प्रदाय के सभी साधु ज्ञान, तपस्या, साधना आदि की दृष्टि से समान (५) सर्व सम्प्रदायों की भारत जैन महामण्डल या जैन महा होते हैं? यदि उनमें तरतमता होते हुए भी उनके प्रति समान व्यवहार सभा जैसी कोई संस्था हो जो पारस्परिक विवादों को सुलझाने के साथ होता है, तो फिर अन्य सम्प्रदायों के प्रति समादर एवं समानता का ही जैन समाज के सामान्य हितों की रक्षा का प्रयत्न करें तथा भावी व्यवहार क्यों नहीं किया जा सकता । यद्यपि यह प्रसन्नता का विषय है एकता के लिए आधारभूमि प्रस्तुत करें। कि आज अधिकांश मुनियों में पारस्परिक मिलन और समादर की भावना दूसरे चरण में हमें विभिन्न उपसम्प्रदायों एवं गच्छों के विलीनीकरण बढ़ी है और इसके सुफल भी सामने आये हैं, पुरानी कटुता और का प्रयास करना होगा -- अर्थात् स्थानकवासी, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक एवं आलोचना-प्रत्यालोचना में कमी हुई है, फिर भी अभी ऐसे प्रयत्नों की तेरापन्थी अपने आवान्तर मतभेदों को त्यागकर अपना संगठन तैयार आवश्यकता है जिससे विविध सम्प्रदाय के आचार्य एक दूसरे के निकट करें। इसी चरण में दिगम्बर सम्प्रदाय भी अपने आवान्तर भेदों को आ सकें ताकि भावात्मक एकता की दिशा में हम आगे बढ़ सकें । हमारी समाप्त कर एकरूप हो जायें । यह कार्य दुःसाध्य तो नहीं है, किन्तु एकरूपता के आदर्श स्वरूप का प्रस्तुतीकरण तो हमने विवादस्पद श्रमसाध्य अवश्य है। प्रबुद्ध मुनियों की देखरेख में निष्पक्ष विद्वानों की प्रश्नों की चर्चा करते हुए किया है, किन्तु उनकी व्यवहार्यता आज ऐसी समिति बना दी जाये जो प्रत्येक सम्प्रदाय के लिए आगम और कितनी होगी? यह बता पाना कठिन है। अत: एकता के आदर्श की वर्तमान परिस्थिति दोनों को ध्यान में रखकर एक आचार संहिता प्रस्तुत ओर बढ़ने के लिए हमें कुछ चरण निश्चित कर लेने होंगें । प्रथम चरण करें । जब धीरे-धीरे इन आवान्तर सम्प्रदायों के संगठन सुदृढ़ हो जायें में हमें वे कार्य करने होगें, जिनसे पारस्परिक कटुता कम को। इस तो अन्त में तीसरे चरण में सर्व सम्प्रदायों के विलीनीकरण के लिए सम्बन्ध में निम्न उपाय करने होंगे जैनधर्म का सर्वमान्य स्वरूप प्रस्तुत किया जाये और चारों सम्प्रदाय (१) मूर्तियों, मन्दिरों और तीर्थों अथवा अन्य सम्पत्ति अपने नाम रूपों को विलीन कर उस एक ही महासंघ के अंग बन सम्बन्धी विवाद यथाशीघ्र निपटा लिये जाएँ। इसके लिए निष्पक्ष लोगों जायें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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