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________________ ५८८ और मन्दिर के साथ जो परिग्रह जुड़ता जा रहा है वह युक्तिसंगत नहीं है। श्वेताम्बर मुनि श्री न्यायविजय जी ने भी इसका विरोध किया था । यही सब विवादों का मुख्य कारण बन रहा है। । जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ एकता की दृष्टि से यही अच्छा विकल्प होगा कि पद्मासन की ध्यान मुद्रायुक्त प्रतिमाओं को ही अपनाया जाए और उस पर कन्दोरा, लंगोट, स्फटिक नेत्र आदि का उपयोग न हो। यद्यपि इसे तभी अपनाना होगा जबकि दोनों सम्प्रदाय अपना विलीनीकरण कर लें अन्यथा ऐसी मूर्तियों को लेकर जैसे विवाद आज है, वैसे विवाद बाद में भी उठ खड़े होगें । जहाँ तक मूर्तिपूजा सम्बन्धी विधि-विधान का प्रश्न है, उसमें भी आडम्बर बाद में ही बढ़ा है, अतः अच्छा यही होगा कि दिगम्बर परम्परा के तेरापंथ में जो अचित द्रव्यों से पूजा का विधान है उसे स्वीकार कर लिया जाये । मूर्ति की द्रव्य पूजा में हिंसा अल्पतम हो, यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है। जिन मन्दिरों में यज्ञों को तो तत्काल बन्द कर देना चाहिए, यह पूर्णत: ब्राह्मण संस्कृति का प्रभाव है। मात्र यही नहीं, द्रव्यपूजा की अपेक्षा भावपूजा पर और प्रभु भक्ति के माध्यम से प्रभु के गुणों को जीवन में उतारने का लक्ष्य अधिक रहे। जिन-प्रतिमा हमारी भावनाओं की विशुद्धि का साधन है और एक साधन के रूप में उसका स्थान है। यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि मूर्ति और उसकी द्रव्यपूजा की आवश्यकता, साधना और ज्ञान प्राथमिक स्तर पर उसी प्रकार है, जिस प्रकार वर्णमाला का अर्थबोध कराने के लिए प्राथमिक स्तर पर चित्रों की सहायता अपेक्षित है । मुखवस्त्रिका के प्रश्न का समन्वय में श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एक विवाद मुखवस्त्रिका को लेकर भी है । स्थानकवासी और श्वेताम्बर तेरापंथी डोरा डालकर उसे सदैव ही मुखपर बाँधे रहते हैं । मुखवस्त्रिका का विकास महावीर के परवर्ती काल हुआ है। ऐसा कोई भी ठोस प्रमाण नहीं है, जिससे सिद्ध हो कि महावीर ने मुखवस्त्रिका रखी थी। आचारांग के प्राचीनतम अंश प्रथम श्रुतस्कन्ध में मुखवस्त्रिका का उल्लेख नहीं है । यद्यपि लगभग दो हजार वर्ष पूर्व से इसका प्रयोग श्वेताम्बर परम्परा में होता रहा है, ऐसा श्वेताम्बर आगम साहित्य से सिद्ध होता है। तथापि डोरा डालकर बाँधने के सम्बन्ध में ठोस ऐतिहासिक प्रमाण १७-१८ वीं के पूर्व के नहीं मिले हैं। मुखवत्रिका के उपयोग का मुख्य उद्देश्य तो वायुकायिक जीवों की रक्षा है । डोरा डालकर उसका प्रयोग करना मात्र एक सुविधा की बात है। एकता की दृष्टि से इस समस्या का हल यही हो सकता है - प्रवचन आदि के प्रसंगों पर उसे बांधा जाये, अन्य अवसरों पर बातचीत करते समय उसका सावधानीपूर्वक उपयोग किया जाये । दया दान के विवाद का प्रश्न श्वेताम्बर तेरापंथ का जैन समाज के अन्य सम्प्रदायों से मुख्य विवाद दया दान के प्रश्न को लेकर है। यद्यपि आज यह कहा जाता Jain Education International है कि आचार्य भिक्षु ने स्थानकवासी समाज के साधुओं में आई आचारगत विकृतियों को दूर करने के लिए क्रान्ति की थी, चाहे इस बात में आंशिक सत्यता भी हो किन्तु मूल बात तो विचारगत भिन्नता की थी। मूल प्रश्न यही था कि लोक-मंगल के उन कार्यों को जिनमें अल्पतम हिंसा की भी सम्भावना हो, धर्म के अन्तर्गत माना जाये अथवा नहीं ? आचार्य भिक्षु ने ऐसे कार्यों को स्पष्टरूप से धर्म साधना के अन्तर्गत नहीं माना था। चाहे उनकी इस मान्यता के पीछे निरपेक्ष अहिंसा के सिद्धान्त का और तत्सम्बन्धी सूत्रकृतांग आदि के कुछ आगमिक प्रमाणों का बल भी हो, किन्तु यह अवधारणा मनुष्य की जन कल्याणकारी प्रवृत्तियों के विरोध में जाती है और लोक व्यवहार में जैनधर्म को आलोचना का विषय बनाती है। यही कारण है कि तेरापंथ परम्परा के व्यवहार कुशल आचार्य तुलसी ने इस वास्तविकता को समझा और लोक व्यवहार के नाम पर ही सही, लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों को अपने धर्म - लोक में प्रोत्साहित किया है। इस सम्बन्ध में कट्टर तेरापंथियों ने उनकी आलोचना भी की है । किन्तु उन्होंने साहसपूर्वक यह परिवर्तन किया है। राणावास की शिक्षा संस्थाएँ और लाइन का आयुर्वेदिक चिकित्सा केन्द्र इस बात का स्पष्ट प्रमाण है। आज कोई भी तेरापंथी मुनि अन्य सम्प्रदाय के मुनियों को आहार देने में या असंयती जनों की सेवा करना पाप है • ऐसा स्पष्ट उद्घोष नहीं करता है। यह एक शुभ लक्षण है इसके कारण तेरापंथ और दूसरे जैन सम्प्रदायों के बीच की दूरी कम हुई है और वह जन साधारण में आलोचना का विषय बनने से बचा है। व्यवहार के क्षेत्र में सेवा और दान का महत्त्व है, इतना तो हमें मानकर चलना होगा । -- हमारी एकता का स्वरूप क्या हो ? एकता की बात करना सहज है किन्तु वह एकता किस प्रकार सम्भव होगी, यह बता पाना कठिन है। एकता का एक रूप तो वह हो सकता है जिसमें सभी अपने नाम रूप खोकर एक हो जायें अर्थात् सभी सम्प्रदाय विलीन होकर जैनधर्म और समाज का एक ही रूप अस्तित्व में रहें । एकता का यह स्वरूप आदर्श तो हो सकता है इसकी व्यवहार्यता सन्देहास्पद है । आज सम्प्रदायों की जड़ें इतनी गहरी जम चुकी हैं कि उन्हें पूरी तरह उखाड़ पाना सम्भव नहीं है। सम्प्रदायों के हैं। अस्तित्व के साथ ही लोगों के हित और सम्मान के प्रश्न जुड़े हुए बाहर से चाहे हम सब एकता की बातें करें किन्तु भीतर से कोई भी अपने अस्तित्व और अहं को विलीन करने को तैयार नहीं हैं। जब भी हमें अपने हितों या अस्तित्व के प्रति खतरा नजर आता है, हम 'धर्म खतरे में है' का नारा लगाना प्रारम्भ कर देते हैं। जब आज हम एक मूर्ति या मन्दिर पर से भी अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाहते हैं, तो क्या यह सम्भव है कि हम अपनी सम्पूर्ण सामाजिक एवं धार्मिक सम्पत्ति को समर्पित करने को सहज ही तैयार हो जाएँगे । जब स्थानकवासी मुनि वर्ग की अपनी बनाई हुई एकता को कायम नहीं रख सका, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि सभी सम्प्रदायों के मुनि और श्रावक अपनी-अपनी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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