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________________ १९. भोजनशयनाऽच्छादन प्रदानाऽदिलक्षणः । सचाल्पतया २१. परमार्थत: पारमेश्वर प्रवचनोपदेश एव तस्येव भवशतोपचित नात्यन्तिकश्चैहिकार्य स्याऽपि साधनेनैकान्तेन साधीयानिति । दुःखक्षयक्षमत्वात् - आह च नोपकारो जगत्यस्मिस्तादृशो विद्यते क्वचित् । - अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ५, पु० ६९७ यादृशी दु:खविच्छेदाद् देहिनां धर्मदेशना। ' २०. भावोपकारस्त्वध्यापनश्रावणादिस्वरूपों गरीय नित्यात्यन्तिक -अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ५, पृ० ६९७ । उभयलोक सुखावहश्चेत्यतो भावोपकार एव यतितव्यम् । - अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ५, पृ०६९७ पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म तीव्रता से बढ़ती हुई जनसंख्या और उपभोक्तावादी संस्कृति के स्वयं भी जीवन हैं क्योंकि इनके अभाव में जीवन की कल्पना भी सम्भव कारण प्रदूषित होते पर्यावरण की रक्षा का प्रश्न आज मानव समाज की नहीं है । क्या हम जल, वायु, पृथ्वीतत्त्व एवं ऊर्जा (अग्नितत्त्व) के एक ज्वलन्त समस्या है क्योंकि प्रदूषित होते हुए पर्यावरण के कारण अभाव में जीवन की कोई कल्पना भी कर सकते हैं ? ये तो स्वयं जीवन न केवल मानवजाति अपितु पृथ्वी पर स्वयं जीवन के अस्तित्व को भी के अधिष्ठान हैं । अत: इनका दुरूपयोग या विनाश स्वयं जीवन का ही खतरा उत्पन्न हो गया है । उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण जीवन के विनाश है । इसीलिये जैनधर्म में उसे हिंसा या पाप कहा गया है। हिन्दू लिये आवश्यक स्रोतों का इतनी तीव्रता से और इतनी अधिक मात्रा में धर्म में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को जो देव रूप माना गया है, दोहन हो रहा है कि प्राकृतिक तेल एवं गैस की बात तो दूर रही, अगली उसका आधार भी इनका जीवन के अधिष्ठान रूप होना ही है । जैन शताब्दी में पेयजल और सिंचाई हेतु पानी मिलना भी दुष्कर होगा। यही परम्परा में भगवान महावीर से पूर्व भगवान पार्श्व के काल में भी पृथ्वी, नहीं, शहरों में शुद्ध प्राणवायु के थैले लगाकर चलना होगा । अत: जल, वायु, अग्नि और वनस्पति में जीवन होने की यह अवधारणा मानवजाति के भावी अस्तित्व के लिये यह आवश्यक हो गया है कि उपस्थित थी । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक, पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने के प्रयत्न अविलम्ब प्रारम्भ हो । यह वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक -- ऐसे षट्जीवनिकायों की चर्चा शुभ-लक्षण है कि पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने की चेतना आज प्राचीन जैन आगमों का प्रमुख विषय रहा है । आचारांगसूत्र (ई०पू० समाज के सभी वर्गों में जागी है और इसी क्रम में यह विचार भी उभर पाँचवी शती) का तो प्रारम्भ ही इन षट्जीवनिकायों के निरूपण से तथा कर सामने आया है कि विभिन्न धार्मिक परम्पराओं में पर्यावरण को उनकी हिंसा के कारणों एवं उनकी हिंसा से बचने के निर्देशों की चर्चा प्रदूषण से मुक्त रखने के ऐसे कौन से निर्देश हैं जिनको उजागर करके से ही होता है । इन षट्जीवनिकायों की हिंसा नहीं करने के सन्दर्भ में पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के सन्दर्भ में मानव समाज के विभिन्न जैन आचार्यों के जो निर्देश हैं, वे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने वर्गों की चेतना को जागृत किया जा सके । इस सन्दर्भ में यहाँ मैं जैनधर्म की दृष्टि से आज सर्वाधिक मूल्यवान बन गये हैं। आगे हम उन्हीं की की दृष्टि से ही आप लोगों के समक्ष अपने विचार रखूगा। चर्चा करेंगे। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि जैनधर्म में भोगवृत्ति के प्रति यह एक अनुभूत प्राकृतिक तथ्य है, एक जीवन की अभिव्यक्ति संयम, अहिंसा और असंग्रह (अपरिग्रह) पर सर्वाधिक बल दिया गया और अवस्थिति दूसरे शब्दों में उसका जन्म, विकास और अस्तित्व दूसरे है। उसके इन्ही मूलभूत सिद्धान्तों के आधार पर जैनधर्म में ऐसे अनेक जीवनों के आश्रित है -- इससे हम इंकार भी नहीं कर सकते हैं । किन्तु आचार नियमों का निर्देश हुआ है जिनका परिपालन आज पर्यावरण को इस सत्य को समझने की जीवन-दृष्टियाँ भिन्न-भिन्न रही हैं । एक प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये आवश्यक है । जैनधर्म के प्रवर्तक दृष्टिकोण यह रहा है कि यदि एक जीवन दूसरे जीवन पर आश्रित है तो आचार्यों ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व यह उद्घोषणा की थी कि न हमें यह अधिकार है कि हम जीवन के दूसरे रूपों का विनाश करके भी केवल प्राणीय जगत् एवं वनस्पति जगत् में जीवन की उपस्थिति है, अपने अस्तित्व को बनाये रखें । पूर्व में 'जीवोजीवस्य भोजनम्' और अपितु उन्होंने यह भी कहा था कि पृथ्वी, पानी, वायु और अग्नि में भी पश्चिम में 'अस्तित्व के लिए संघर्ष' (Struggle for existence) के जीवन हैं । एक ओर तो वे यह मानते थे कि पृथ्वी, पानी एवं वनस्पति सिद्धान्त इसी दृष्टिकोण के कारण अस्तित्व में आये । इनकी जीवन-दृष्टि के आश्रित होकर अनेकानेक प्राणी अपना जीवन जीते हैं, अत: इनके हिंसक रही । इन्होंने विनाश से विकास का मार्ग चुना । आज पूर्व से दुरूपयोग, विनाश या हिंसा से उनका भी विनाश होता है। दूसरे ये पश्चिम तक इसी जीवन-दृष्टि का बोल-बाला है । जीवन के दूसरे रूपों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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