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________________ ५७४ उनमें कहीं राग-द्वेष की वृत्ति निहित हो रागादि भाव या स्वहित की वृत्ति से किया जाने वाला परार्थ भी सच्चा लोकहित नहीं है, वह तो स्वार्थ ही है, जिस प्रकार के शासन के द्वारा नियुक्त एवं प्रेरित समाजकल्याण अधिकारी वस्तुतः लोकहित का कर्ता नहीं है, वह तो वेतन के लिए लोकहित करता है। उसी प्रकार राग से प्रेरित होकर लोकहित के प्रयत्न राग की अभिव्यक्ति, प्रतिष्ठा की रक्षा, यश अर्जन की भावना या भावी लाभ की प्राप्ति हेतु ही होते हैं। ऐसा परार्थ वस्तुतः स्वार्थ ही है। सच्चा आत्महित और सच्चा लोकहित, राग-द्वेष से शून्य अनासक्ति की भूमि पर प्रस्फुटित होता है लेकिन उस अवस्था में आकर न तो 'स्व' रहता है न 'पर' क्योंकि जहाँ राग है वहीं 'स्व' है और जहाँ 'स्व' है वहीं 'पर' है। राग की शून्यता होने पर स्व और पर का विभेद ही समाप्त हो जाता है, ऐसी राग शून्यता की भूमि पर स्थित होकर किया जाने वाला आत्महित भी लोकहित होता है और लोकहित आत्महित होता है। दोनों में कोई संघर्ष नहीं, कोई द्वैत नहीं है। उस दशा में न तो कोई अपना है, न कोई पराया। स्वार्थ और परार्थ जैसी समस्या यहाँ रहती ही नहीं। जैन धर्म के अनुसार स्वार्थ और परार्थ के मध्य सभी अवस्थाओं में संघर्ष रहे यह आवश्यक नहीं है। व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे स्वार्थपरार्थ का संघर्ष भी समाप्त होता जाता है। जैन विचारकों ने परार्थ या लोकहित के तीन स्तर माने है १. द्रव्य लोकहित २. भाव लोकहित और ३. पारमार्थिक लोकहित । १. द्रव्य लोकहित" यह लोकहित का भौतिक स्तर है । भौतिक उपादानों जैसे भोजन, वस्त्र, आवास आदि तथा शारीरिक सेवा के द्वारा लोकहित करना लोकहित का भौतिक स्तर है, यहाँ पर साधन भौतिक होते हैं। द्रव्य लोकहित एकान्त रूप से आचरणीय नहीं कहा जा सकता। यह अपवादात्मक एवं सापेक्ष नैतिकता का क्षेत्र है। भौतिक स्तर पर स्वहित की पूर्णतया उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। यहाँ तो स्वहित और परहित में उचित समन्वय बनाना ही अपेक्षित है। पाश्चात्य नैतिक विचारणा के परिष्कारित स्वार्थवाद, बौद्धिक परार्थवाद और सामान्य शुभ के सिद्धान्तों का विचार क्षेत्र लोकहित का यह भौतिक स्वरूप ही है । जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६ - २० २. भाव लोकहित लोकहित का यह स्तर भौतिक स्तर से ऊपर स्थित है । यहाँ पर लोकहित के साधन ज्ञानात्मक या चैत्तासिक होते हैं। इस स्तर पर परार्थ और स्वार्थ में संघर्ष की सम्भावना अल्पतम होती है । Jain Education International २९ - ३. पारमार्थिक लोकहित " यह लोकहित का सर्वोच्च स्तर है, यहाँ आत्महित और परहित में कोई संघर्ष नहीं रहता; कोई द्वैत नहीं रहता। यहाँ पर लोकहित का रूप होता है यथार्थ जीवन दृष्टि के सम्बन्ध में मार्ग दर्शन करना । सन्दर्भ १. आत्मानं सततं रक्षेत् दारैरपि धनैरपि चाणक्य नीति २. स्वमर्थ यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति मिथ्या चरित मिशयक्ष मूद्र स उच्यते ॥ विदुरनीति ३. आत्मार्थे जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः । परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति ॥ -सुभाषित भाण्डागारम् ४. जीवितान्मरणं श्रेष्ठं परोपकृतिवर्जितात् । ५. नीति प्रवेशिका मैकेन्जी-हिन्दी अनुवाद पृष्ठ २३४ । ६. सम्मेच्च लोए खेयन्नेहि पवइए - आचारांग ७. सर्वापदान्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव । ८. सव्व जगजीव रक्खण दयट्ठाए पावयणं भगवं सुकहियं । प्रश्नव्याकरण सूत्र, २१/२२ ९. महव्वयाई लोकहिय सब्वयाई । - वही, १/१/२१ १०. तत्थपठमं अहिंसा, तस यावर सव्वभूयखेमकरी । वही, १/१/३ ११. वही, १/२/२२ । १२. प्राणिनामनुग्रहार्थम्, न पूजासत्कारार्थम् । • सूत्रकृतांग (टी), १/६/४ मोहान्धकार गहने संसार दुःखिता बत । सत्वा परिभ्रमन्त्युच्कै सत्यस्मिन् धर्मतेजसि ॥ अहोतानतः कृच्छाद यथायोग कथंचन । अनेनोत्तारयामीर्ति वरबोधि समन्वितः ॥ करुणादि गुणोपेतः परार्थ व्यसनी सदा । तथैव चेष्टते श्रीमान् वर्धमान महोदयः ॥ तत्कल्याण योगेने कुर्वन्सत्त्वार्थ मेवसः । तीर्थकृत्वमवाप्नोति परं सवार्थ साधनम् ।। योगबिन्दु, २८५-२८८ चिन्तयत्येवमेवैतत् स्वजनागतं तु यः । तथानुष्ठानतः सोऽपि धीमान् गणधरोभवेत् ॥ १२. १४. १५. - For Private & Personal Use Only - - - योगबिन्दु, २८९ । संविग्नो भव निर्वेदादात्मनिः सरणं तु यः । आत्मार्थं सम्प्रवृत्तो सौ सदा स्यान् मुण्डकेवली ॥ योगबिन्दु, २९० । - १६. निशीथचूर्णि गा० २८६० । १७. स्थानांग०, १०/७६० १८. आदहिदं कादव्वं अदि सक्कई परहिंदं च कादव्वं । आदहिद परहियादो आदहिदं सुट्ठ कादव्वं ॥ - उद्धृत्, आत्मसाधना संग्रह, पृ० ४४१। www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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