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________________ सन्दर्भ सती प्रथा और जैनधर्म ५७१ के उल्लेख हैं । ये सहवर्ती हिन्दू समाज का प्रभाव ही था जो कि अत: निष्कर्ष रूप में हम यही कह सकते हैं कि जैनधर्म में विशेषत: राजस्थान के उन जैनपरिवारों में था जो कि निकट रूप से राज- धार्मिक दृष्टि से सती प्रथा को कोई प्रश्रय नहीं मिला क्योंकि वे सभी परिवार से जुड़े हुए थे। कारण जो सती प्रथा के प्रचलन में सहायक थे। जैन-जीवन दृष्टि और श्री अगरचन्दजी नाहटा ने अपने ग्रन्थ बीकानेर जैन लेख संग्रह संघ-व्यवस्था के आधार पर और जैनधर्म में भिक्षुणी संघ की व्यवस्था में जैनसती स्मारकों का उल्लेख किया है१८ । वे लिखते हैं कि जैनधर्म से निरस्त हो जाते थे। की दृष्टि से तो सती-दाह मोहजनित एवं अज्ञानजनित आत्मघात ही है, किन्तु स्वयं क्षत्रिय होने से वीरोचित जाति-संस्कारवश, वीर राजपूत जाति के घनिष्ठ सम्बन्ध में रहने के कारण यह प्रथा ओसवाल जाति (जैनों की एक जाति) में भी प्रचलित थी । नाहटाजी ने केवल बीकानेर १. देखें - संस्कृत-हिन्दी कोश (आप्टे), पृ० १०६२ । के अपने अन्वेषण में ही २८ ओसवाल सती स्मारकों का उल्लेख किया २. देखें- हिन्दू धर्म कोश (राजबली पाण्डेय), पृ०६४९ । है। इन लेखों में सबसे प्रथम लेख वि० सं० १५५७ का और सबसे ३. जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, भाग ५, पृ. १८५ । अन्तिम लेख वि० सं० १८६६ का है । वे लिखते हैं कि बीकानेर राज्य ४. ब्राह्मी आदि इन सोलह सतियों के जीवनवृत्त किन आगमों एवं की स्थापना से प्रारम्भ होकर जहाँ तक सती प्रथा थी वह अविच्छिन्न रूप ___ आगमिक व्याख्याओं में है, इसलिए देखें - से जैनों में भी जारी थी। यद्यपि इन सती स्मारकों से यह निष्कर्ष निकाल (क) जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग ५, पृ० ३७५ लेना कि सामान्य जैन समाज में यह सती प्रथा प्रचलित थी, उचित नहीं (a) Prakrit Proper Names, part I and II होगा। मेरी दृष्टि में यह सती प्रथा केवल उन्हीं जैनपरिवारों में प्रचलित सम्बन्धित नाम के प्राकृतरूपों के आधार पर देखिये । रही होगी जो राज-परिवार से निकट रूप से जुड़े हुए थे। बीकानेर के ५. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ. ३२० । उपर्युक्त उल्लेखों के अतिरिक्त भी राजस्थान में अन्यत्र ओसवाल जैनसतियों ६. देखें - (अ) हिन्दूधर्म कोश, पृ०६४९।। के स्मारक थे। श्री पूर्णचन्द्र नाहर ने भामा शाह के अनुज ताराचन्द जी (ब) धर्मशास्त्र का इतिहास, (काणे) भाग २, पृ. ३४८ कपाड़िया के स्वर्गवास पर उनकी ४ पत्नियों के सती होने का सादड़ी ७. तेसिं पंच महिलासंताई ताणि वि अग्गिं पावट्ठाणि । के अभिलेख का उल्लेख किया है१९ । स्वयं लेखक को भी अपने गोत्र -निशीथचूर्णि, भाग ४, पृ० १४ के सती-स्मारक की जानकारी है। अपने गोत्र एवं वंशज लोगों के द्वारा __ - बृहद्कल्पभाष्य वृत्ति, भाग ३, पृ० २०८ इन सती स्मारकों की पूजा स्वयं लेखक ने भी होते देखी है । अत: यह ८. देखें - (अ) विष्णुधर्म सूत्र, २५/१४ । उद्धृत हिन्दूधर्मकोश स्वीकार तो करना होगा कि जैन परम्परा में भी मध्यकाल में सती प्रथा पृ० ६४९ ।। का चाहे सीमित रूप में ही क्यों न हो किन्तु प्रचलन अवश्य था। यद्यपि (ब) उत्तररामायण, १७/१५, , , , , इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि यह प्रथा जैनधर्म एवं (स) महाभारत, आदि पर्व ९५/६५ ,, ,, ,, ,, जैनाचार्यों के द्वारा अनुशंसित थी, क्योंकि हमें अभी तक ऐसा कोई भी (द) महाभारत, मौसलपर्व ७/१८, ७/२३-८४ ,, ,,,,, सूत्र या संकेत उपलब्ध नहीं है जिसमें किसी जैन ग्रन्थ में किसी जैनाचार्य ९. देखें - हिन्दू धर्म कोश, पृ० ६५० ने इस प्रथा का समर्थन किया हो । जैन ग्रन्थ और जैनाचार्य तो सदैव १०. महानिशीथ, पृ०२९ देखें - जैन आगम साहित्य में भारतीय ही विधवाओं के लिए भिक्षुणी संघ में प्रवेश की अनुशंसा करते रहे हैं। समाज, पृ. २७१ । अत:परवर्ती काल के जो सती स्मारक सम्बन्धी जैन अभिलेख मिलते ११. बीकानेर जैन लेख संग्रह-भूमिका, पृ० ९५ की पाद टिप्पणी । हैं वे केवल इस तथ्य के सूचक हैं कि सहवर्ती हिन्दु परम्परा के प्रभाव १२. केई कंतकारण काष्ट भक्षण करै रे, मिलस कंत नै धाय । के कारण विशेष रूप से राजस्थान की क्षत्रिय परम्परा के ओसवाल जैन ए मेलो नवि कइयइ सम्भवै रे, मेलो ठाम न ठाय । समाज में यह प्रथा प्रवेश कर गई थी । और जिस प्रकार कुलदेवी, -आनन्दघन चौबीसी-श्री ऋषभदेव स्तवन कुलभैरव आदि की पूजा लौकिक दृष्टि से जैनधर्मानुयायियों द्वारा की १३. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० ३७२ । जाती थी उसी प्रकार सती स्मारक भी पूजे जाते थे । राजस्थान में बीकानेर १४. (अ) महाभारत, मौसलपर्व ७/७३-७४, विष्णुपुराण, से लगभग ४० किलोमीटर दूर मोरखना सुराणी माता का मन्दिर है। ५/३८/२ इस मन्दिर की प्रतिष्ठा धर्मघोषगच्छीय पद्माणंदसूरि के पट्टधर (ब) धर्मशास्त्र का इतिहास, काणे, भाग १, ३४८ नंदिवर्धनसूरि द्वारा हुई थी। ओसवाल जाति के सुराणा और दुग्गड़ गोत्रों १५. अन्तकृतदशा के पंचम वर्ग में कृष्ण की ८ रानियों के तीर्थंकर में इसकी विशेष मान्यता है । सुराणी माता सुराणा परिवार की कन्या अरिष्टनेमि के समीप दीक्षित होने का उल्लेख है। थी जो दूगड़ परिवार में ब्याही गई थी। यह सती मन्दिर ही है । फिर १६. पउमचरियं, १०३/१६५-१६९ भी इस प्रकार की पूजा एवं प्रतिष्ठा को जैनाचार्यों ने लोकपरम्परा ही १७. धर्मशास्त्र का इतिहास, काणे, भाग १, पृ० ३५२ माना था, आध्यात्मिक धर्मसाधना नहीं । बीकानेर के सती स्मारक में दो १८. कल्पसूत्र, १३४ स्मारक माता सतियों के हैं, इन्होंने पत्रप्रेम में देहोत्सर्ग किया था जो एक १९. बीकानेर जैन लेख संग्रह - भूमिका, पृ० ९४-९९ विशिष्ट बात है। प्रवेश की अनाचार्य तो सब के जो सती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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