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________________ ५७० जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ यह अर्थ नहीं है कि वह पति की मृत्यु होने पर स्वयं भी मृत्यु का वरण असम्मानित होती थीं और न असुरक्षित ही। यही कारण थे कि जैनधर्म करे, उनकी दृष्टि में पतिव्रता होने का अर्थ है शीलवान या चारित्रवान में सती प्रथा को विकसित होने के अवसर ही नहीं मिले । होना और पति की मुत्यु होने पर पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करना। यद्यपि प्रो० काणे१६ ने अपने धर्मशास्त्र के इतिहास में सती पति की मृत्यु पर स्त्री का प्रथम कर्तव्य होता था कि वह संयम पूर्ण प्रथा के कारणों का विश्लेषण करते हुए यह बताया है कि बंगाल में जीवन जीते हुए अपनी सन्तान का पालन-पेषण करे- जैसा कि राजगृही मेघातिथि स्त्री को पति की सम्पत्ति का अधिकार मिलने के कारण ही की भद्रा सार्थवाही ने किया था अथवा सन्तान के योग्य हो जाने पर सतीप्रथा का विकास हुआ, किन्तु यदि यह सत्य माना जाये तो फिर चारित्र (दीक्षा) ग्रहण कर साध्वी का जीवन व्यतीत करें।२ । प्राचीन जैनधर्म में भी सतीप्रथा का विकास होना था किन्तु जैनधर्म में ऐसा नहीं जैनाचार्यों ने सदैव ही पति की चिता पर जलने के स्थान पर श्रमणी बनने हुआ । स्त्री को सम्पत्ति का अधिकार मिलने की स्थिति में हिन्दू धर्म में पर बल दिया । प्राचीन जैन कथा साहित्य में हमें अनेक ऐसे कथानक स्त्री स्वयं सती होना नहीं चाहती थी अपितु सम्पत्ति लोभ के कारण मिलते हैं जहाँ स्त्रियाँ श्रमण जीवन अंगीकार कर लेती हैं । जहाँ परिवार के लोगों द्वारा उसे सती होने को विवश किया जाता है किन्तु महाभारत एवं अन्य हिन्दू पुराणों में कृष्ण की पत्नियों के सती होने के अहिंसा प्रेमी जैनधर्मानुयायियों की दृष्टि में सम्पत्ति पाने के लिये स्त्री को उल्लेख है१३ वहाँ जैन साहित्य में उनके साध्वी होने के उल्लेख हैं। आत्मबलिदान हेतु विवश करना उचित नहीं था, यह तो स्पष्ट रूप से हिन्दू परम्परा में सत्यभामा को छोड़कर कृष्ण की शेष पत्नियाँ सती हो नारी हत्या थी । अतः सम्पत्ति में विधवा के अधिकार को मान्य करने जाती हैं सत्यभामा वन में तपस्या के लिए चली जाती है, जबकि जैन पर भी अहिंसा प्रेमी जैनसमाज सतीप्रथा जैसे अमानवीय कार्य का परम्परा में कृष्ण को सभी पटरानियाँ श्रमणी बन जाती हैं। हिन्दू कथाओं समर्थन नहीं कर सका । दूसरे, यह कि यदि वह स्त्री स्वेच्छा से दीक्षित में सीता पृथ्वी में समा जाती है, जैन कथा में लव-कुश के युवा हो जाने हो जाती थी तो भी उन्हें सम्पत्ति का स्वामित्व तो प्राप्त हो ही जाता था। पर वह श्रमणी बन जाती है।५ । ये कथाएँ चाहे ऐतिहासिक दृष्टि से अतः जैनधर्म में सामान्यतया सतीप्रथा का विकास नहीं हुआ अपितु विवादास्पद हों किन्तु इनसे जैनाचार्यों के दृष्टिकोण का पता तो चल ही उसमें स्त्री को श्रमणी या साध्वी बनने को ही प्रोत्साहित किया गया । जाता है कि वे सती प्रथा के समर्थक नहीं थे। जैनधर्म में पति की मृत्यु के पश्चात् विधवा के लिए भिक्षुणी संघ का सम्मानजनक द्वार सदैव खुला हुआ था। जहां वह सुरक्षा और सममान जैनधर्म में सती प्रथा के विकसित नहीं होने के कारण के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास भी कर सकती थी। अत: जैनाचार्यों जैनधर्म में सतीप्रथा के विकसित नहीं होने का सबसे प्रमुख ने विधवा, परित्यक्ता एवं विपदाग्रस्त नारी को भिक्षुणी संघ में प्रवेश कारण जैनधर्म में भिक्षुणी संघ का अस्तित्व ही है । वस्तुत: पति की हेतु प्रेरित किया, न कि सती होने के लिए। यही कारण था कि जैनधर्म मृत्यु के पश्चात् किसी स्त्री के सती होने का प्रमुख मनोवैज्ञानिक कारण में प्राचीन काल से लेकर आज तक श्रमणियों या भिक्षुणियों की संख्या असुरक्षा एवं असम्मान की भावना है । जैनधर्म में पति की मृत्यु के भिक्षुओं की अपेक्षा बहुत अधिक रही है। यह अनुपात १:३ का रहता पश्चात् स्त्री को अधिकार है कि वह सन्तान की समुचित व्यवस्था करके आया है। भिक्षुणी बनकर संघ में प्रवेश ले ले और इस प्रकार अपनी असुरक्षा की पुन: जैनधर्म में संलेखना (समाधिमरण) की परम्परा भी भावना को समाप्त कर दे। इसके साथ ही सामन्यतया एक विधवा हिन्दू प्रचलित थी । अत: विधवा स्त्रियाँ गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी तपसमाज से तिरस्कृत समझी जाती थी, अत: उस तिरस्कारपूर्ण जीवन त्यागपूर्वक जीवन बिताते हुए अन्त में संलेखना ग्रहण कर लेती थी। जीने की आशंका से वह पति के साथ मृत्यु का वरण करना ही उचित वस्तुपाल प्रबन्ध में वस्तुपाल की पत्नी ललितादेवी और तेजपाल की मानती है । जैनधर्म में कोई भी स्त्री जब भिक्षुणी बन जाती है तो वह पत्नी अनुपमा देवी द्वारा अपने पतियों के स्वर्गवास के पश्चात् गृहस्थ समाज में आदरणीय बन जाती है । इस प्रकार जैनधर्म भिक्षुणी संघ की जीवन में बहुत काल तक धर्माराधन करते हुए अन्त में अनशन द्वारा व्यवस्था करके स्त्री को पति की मृत्यु के पश्चात् भी सम्मानपूर्वक जीवन देहत्याग के उल्लेख हैं । किन्तु यह देहोत्सर्ग भी पति की मृत्यु के जीने का मार्ग प्रशस्त कर देता है। तत्काल पश्चात् न होकर वृद्धावस्था में यथासमय ही हुआ है । अत: हम स्त्री द्वारा पति की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति में अधिकार न होने कह सकते है कि जैनधर्म में सती प्रथा का कोई स्थान नहीं रहा है। से आर्थिक संकट भी हिन्दू नारी की एक प्रमुख समस्या है जिससे बचने के लिए स्त्री सती होना पसन्द करती है । श्रमणी जीवन में जैन नारी परवर्तीकाल में जैनधर्म में सतीप्रथा का प्रवेश सम्मानजनक रूप से भिक्षा प्राप्त करके आर्थिक संकट से भी बच जाती यद्यपि धार्मिक दृष्टि से जैनधर्म में सतीप्रथा को समर्थन और थी, साथ ही जैनधर्म हिन्दूधर्म के विरुद्ध सम्पत्ति पर स्त्री के अधिकार को उसके उल्लेख प्राचीन जैन धार्मिक ग्रन्थों में नही मिलते हैं । किन्तु मान्य करता है । जैनग्रन्थों में भद्रा आदि सार्थवाहियों का उल्लेख मिलता सामाजिक दृष्टि से जैन समाज भी उसी बृहद् हिन्दू समाज से जुड़ा हुआ है जो पति के स्वर्गवास के पश्चात् अपने व्यवसाय का संचालन स्वयं था जिसमें सती प्रथा का प्रचलन था । फलत: परवर्ती राजपूत काल के करती थीं । अत: यह स्वाभाविक था कि जैनस्त्रियाँ वैधव्य के कारण न कुछ जैन अभिलेख ऐसे हैं जिनमें जैन समाज की स्त्रियों के सती होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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