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________________ डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मेरे गुरुजी के चतुर्दिक बिखरी साहित्यिक सुगन्ध से तो प्राय: सभी भिज्ञ हैं परन्तु कितने लोग हैं जो उनके सामाजिक क्रियाकलापों से परिचित हैं । इन्होंने सामाजिक एवं धार्मिक बुराइयों के विरुद्ध न केवल अपनी लेखनी चलायी है अपितु कर्मभूमि में उतरकर बुराइयों का सामना किया है । यहाँ मैं पुनः हरिभद्र का उदाहरण देना चाहूँगा । आचार्य हरिभद्र अपने समय की धार्मिक बुराइयों से अत्यधिक व्यथित थे। अपने ग्रन्थ में आचार्य ने ऐसे मुनियों को कड़ी फटकार लगायी है जो श्वेत वस्त्र को जीवन-यापन का साधन बनाते हैं । आचार्य ने ऐसे लोगों को सलाह दी है कि मुनि वेशधारी ये लोग यदि सम्यक् चारित्र का पालन नहीं कर सकते तो क्यों नहीं गृहस्थ वेश धारण कर लेते । गृहस्थ तो ऐसे मुनियों से श्रेष्ठ होते हैं । डाक्टर साहब ने अपनी युवावस्था में ही ऐसे मुनियों से श्वेत वस्त्र हटवाकर क्रान्तिकारी कार्य किया था । तत्पश्चात् आर्थिक रूप से सहायता कर उनको सम्मानपूर्ण जीवन जीने का मार्गदर्शन दिया था। विखलित होते हुए विशाल एवं समृद्ध जैन समाज को एक करने की उनकी व्यथा को “जैन एकता का प्रश्न" नामक उनके निबन्ध में अच्छी तरह देखा जा सकता है। उनका यह चिन्तन मात्र वाविलास नहीं है - क्रियान्वयन का प्रयास है । वाराणसी के भेलूपुर स्थित दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन मन्दिर के अधिकार को लेकर लगभग ३०० वर्षों से चले आ रहे झगड़े को जिस निरपेक्ष ढंग से सुलझाया इसमें उनके चिन्तन के मूर्त रूप को देखा जा सकता है। परिणाम यह है कि दोनों सम्प्रदाय के लोग उन्हें अपना मानते हैं । डॉ० साहब जैन धर्मावलम्बी हैं लेकिन उनके अन्तः स्थल में अनेकान्तवाद की वह अनुगूंज सुनाई पड़ती है जिसकी कल्पना भारतीय मनीषियों ने की थी । जैन मन्दिरों में तीर्थंकर प्रतिमाओं के समक्ष ये जितनी श्रद्धा के साथ नमन करते हैं, उतनी ही श्रद्धा के साथ बाबा विश्वनाथ को भी प्रणाम करते हैं । ये हैं तो स्थानकवासी जो हिन्दुओं के आर्यसमाज के समान मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते, लेकिन जिन या शंकर की मूर्ति को प्रणाम करते हुए देखकर कोई भाँप नहीं सकता । ऐसा लगता जैसे हरिभद्र का श्लोक अपने को मूर्तरूप में चरितार्थ कर रहा हो - " ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै" उनके साथ बितायी हुईं मधुर स्मृतियाँ मेरी अमूल्य धरोहर हैं मैं एक शिष्य का धर्म निबाह सकूँ-ईश्वर मुझे इतनी शक्ति दे । परमपिता से एकमेव प्रार्थना है कि उन्हें एवं आदरणीया आण्टी जी को स्वस्थ रखें । वे शतायु हों-इसी कामना के साथ गुरु के चरणों में श्रद्धावनत् । *प्रवक्ता, इतिहास विभाग, एस० बी० डिग्री कालेज, दादर आश्रम, बलिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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