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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६ अपने गुरू के बारे में... डॉ० अरूण प्रताप सिंह अपने बारे में लिखना जितना कठिन है, उससे ज्यादा कठिन है लिखना अपने गुरु के बारे में। श्रद्धा या स्नेह को शब्दों में बाँधने का प्रयास उसे भौतिक बना देता है । यह तो एक अभौतिक/अनुभूत्यात्मक स्वाद है जिसकी कबीर के [गे गुड़ भाई के समान केवल अनुभूति की जा सकती है - वर्णन नहीं । फिर भी परम्परा का निर्वाह करते हुए अपने गुरु के बारे में कुछ कहना/लिखना अवश्य पसन्द करूँगा। इलाहाबाद विश्वद्यिालय से अपनी एम० ए० की शिक्षा समाप्त करने के उपरान्त उच्चतर अध्ययन के लिए मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आया । यहाँ डॉ० मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी जी ने जैन धर्म पर शोध कार्य के लिए आपके पास भेजा । प्रांगण में प्रवेश करते ही आपसे साक्षात्कार हुआ। यह फरवरी १९८० की बात है । डॉक्टर साहब भी कुछ महीने पहले ही यहाँ निदेशक पद पर आये थे । प्रणाम करने पर उन्होंने जिस वात्सल्य एवं ममत्व से आशीर्वाद दिया-उसका चित्र मानसपटल पर आज तक अंकित है । उनके स्नेह की अजस्र धारा अविरल रूप से आज तक प्रवाहित है - कभी कम नहीं हुई । प्रथम साक्षात्कार में ऐसा लगा जैसे मैं इनको बहुत दिनों से जानता हूँ। पूर्वजन्म के प्रति मेरी नि:संशय मान्यता है। मेरा अटल विश्वास है कि इनके साथ मेरा परिचय निश्चय ही पूर्वजन्मों के कर्मों का परिणाम है । एक अनजान छात्र को उन्होंने जिस सहृदयता से स्नेहभाजन बनाया - उसे मैं किन शब्दों में प्रकट करूँ-समझ नहीं पा रहा हूं। ऐसा कोई शब्द नहीं जो उस अनुभव को काले-सफेद अक्षरों में वर्णित कर सके । अच्छा है - मैं उस मीठास को मन ही मन महसूस करता रहूँ। मैं लगभग १८-१९ वर्षों से सम्पर्क में हूँ। मैनें इन्हें बहुत निकट से देखा है । इनके पास जो भी आया-उन्हीं का हो गया । आने वाला किसी भी परम्परा का हो, किसी भी धर्म-जाति से जुड़ा हो - इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। अपने गुरू के कृतित्व के बारे में कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है । मैं उन्हीं के निश्रय में रहकर पढ़ा-लिखा और जो कुछ भी मैं हूँ, उन्हीं के हाथों बना हूँ। उनकी कृतियाँ विविध विषयक हैं । दर्शन के प्राध्यापक होकर भी उन्होंने इतिहास एवं साहित्य के क्षेत्र में जिस गाम्भीर्य समालोचना का प्रदर्शन किया है - वह अत्यन्त ही श्लाघनीय है। इन्होंने प्रत्येक विषय पर अपनी लेखनी चलायी और पूरी तन्मयता के साथ । प्रामाणिक इतना कि उनके निष्कर्षों से आप सहमत हों या असहमत-सहजरूप में खण्डन करना असम्भव । उन्होंने न केवल स्वयं लिखा अपितु हम लोगों को भी सदा लिखने के लिए प्रेरित किया। मैने आचार्य हरिभद्र और उनके विचारों को थोड़ा-बहुत पढ़ा है । जिस सदाशयतापूर्वक हरिभद्र विभिन्न मतों के सत्य को स्वीकार कर अपनी बात तर्क पुरस्सर रूप से रखते हैं- आधुनिक युग में डॉक्टर साहब के लेखों के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है। यह एक शिष्य का अतिरंजनापूर्ण मूल्यांकन नहीं है - उनके ग्रन्थों की महक का अनुभव कोई भी कर सकता है। आप एक ऐसी संस्था से भी जुड़े जो पूर्णरूपेण असाम्प्रदायिक थी । सम्प्रदाय या सेकुलर शब्द भारतीयभूमि के लिए उपयुक्त नहीं है। सर्वधर्म समभाव की जो अवधारणा भारतीय मनीषियों ने प्रस्तुत की वह अपने मूर्तरूप में यहाँ प्रतिष्ठित है। पार्श्वनाथ विद्यापीठ का जो रूप आज दिखायी दे रहा है, वह इसके दो महान नायकों-सर्वश्री भूपेन्द्र नाथ जी, सचिव एवं डॉ. सागरमल जी जैन-के अनवरत परिश्रम का परिणाम है । पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के जिस पौधे को इन दोनों विशिष्ट जनों ने खाद-पानी देकर पुष्पित/पल्लवित किया, वह आज विद्यापीठ के रूप में अपनी सुगन्ध चतुर्दिक प्रसारित कर रहा है । बनारसी लंगड़े की सुगन्ध से पूरी तरह आच्छादित विद्याश्रम का उपवन दोनों व्यक्तियों के एकाग्र सोच का मूर्त रुप है। डॉ साहब का चिन्तन एवं आदरणीय भूप जी के आर्थिक सम्बल ने न केवल सुदृढ़ नींव तैयार की अपितु अपने मनोनुकूल भव्य प्रासाद का भी निर्माण किया । भविष्य में आने वाला कोई व्यक्ति यदि इस उपवन का केवल संरक्षण भी कर सके तो यह उसका महती योगदान होगा और इन नायकों के प्रति सच्ची शुभाशंसा होगी । समय की गति भी कितनी विचित्र है कि दोनों लोगों के अभिनन्दन रूपी रथ के ये दोनों पहिये एक दूसरे के पूरक हैं - एक के अभाव में दूसरा सम्भवत: उतनी गति से यात्रा नहीं कर सकता था। दोनों गृहस्थ संतों का मिलन एक सुखद संयोग था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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