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________________ २४. यदाह--'३ बाले बुड्ठे नपुंसे य, जड्डे कीवे य वाहिए। तेणे रायावगारीय, उम्मत्ते य अंदसणे ॥१।। दासे दुढे (य) अणत्त जुंगिए इय ।। ओबद्धए य भयए, सेहनिप्फेडिया इय ॥२॥ स्थानांगसूत्रम्, अभयदेवसूरिवृत्ति, (प्रकाशक-- सेठ माणेकलाल, चुन्नीलाल, अहमदाबाद, विक्रम संवत् १९९४) सूत्र ३/ २०२, वृत्ति पृ. १५४ २५.से असइं उच्चागोए असंइ णीयागोए। णो हीणे णो अइरिते णो पीहए ।। इतिसंखाय के गोतावादी, के माणावादी, कंसि वा एगे गिज्झे? तम्हापंडिते णो हरिसे णो कुज्झे -आचारांग,(सं.मधुकरमुनि), १/२/३/७५ २६.जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, संग्रहकर्ता-विजयमूर्ति, लेख क्रमांक ८,३१,४१,५४,६२,६७,६९, २७अ. आवश्यकचूर्णि, जिनदासगणि, ऋषभदेव केसरीमल संस्था, रतलाम, भाग १,पृ. ५५४ ब. भक्तपरिज्ञा, १२८ स.तित्थोगालिअ, ७७७ २८.आचारांग, सं. मधुकरमुनि, १/२/६/१०२ जैन धर्म में नारी की भूमिका भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं में श्रमण परम्परा विवेक कालावधि ईसा की ५वीं शती से बारहवीं शती तक है। उसमें भी अपने प्रधान एवं क्रान्तिधर्मी रही है । उसने सदैव ही विषमतावादी और युग के सन्दर्भो के साथ आगम युग के सन्दर्भ भी मिल गये हैं । इसके वर्गवादी अवधारणाओं के स्थान पर समतावादी जीवन मूल्यों को अतिरिक्त इन आगमिक व्याख्याओं में कुछ ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं, स्थापित करने का प्रयास किया है । जैन धर्म भी श्रमण परम्परा का ही जिनका मूल स्रोत, न तो आगमों में और न व्याख्याकारों के समकालीन एक अंग है अत: उसमें भी नर एवं नारी की समता पर बल दिया गया समाज में खोजा जा सकता है, यद्यपि वे आगमिक व्याख्याकारों की और स्त्री के दासी या भोग्या स्वरूप को नकार कर उसे पुरुष के समकक्ष मनःप्रसूत कल्पना भी नहीं कहे जा सकते हैं । उदाहरण के रूप में ही माना गया है । फिर भी यह सत्य है कि जैन धर्म और संस्कृति का मरुदेवी, ब्राह्मी, सुन्दरी तथा पार्श्वनाथ की परम्परा की अनेक साध्वियों विकास भी भारतीय संस्कृति के पुरुष प्रधान परिवेश में ही हुआ है, से सम्बन्धित विस्तृत विवरण, जो आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में उपलब्ध फलतः क्रान्तिधर्मी होते हुए भी वह अपनी सहगामी ब्राह्मण परम्परा के हैं, वे या तो आगमों में अनुपलब्ध हैं या मात्र संकेत रूप में उपलब्ध व्यापक प्रभाव से अप्रभावित नहीं रह सकी और उसमें भी विभिन्न कालों हैं, किन्तु हम यह नहीं मान सकते हैं कि ये आगमिक व्याख्याकारों की में नारी की स्थिति में परिवर्तन होते रहे। मनःप्रसूत कल्पना है। वस्तुत: वे विलुप्त पूर्व साहित्य के ग्रन्थों से या यहाँ हम आगमों और व्याख्या साहित्य के आधार पर जैनाचार्यों अनुश्रुति से इन व्याख्याकारों को प्राप्त हुए हैं । अतः आगमों और की दृष्टि में नारी की क्या स्थिति रही है इसका मूल्यांकन करेंगे, किन्तु आगमिक व्याख्याओं के आधार पर नारी का चित्रण करते हुए हम यह इसके पूर्व हमें इस साहित्य में उपलब्ध सन्दर्भो की प्रकृति को समझ नहीं कह सकते कि वे केवल आगमिक व्याख्याओं के युग के सन्दर्भ लेना आवश्यक है । जैन आगम साहित्य एक काल की रचना नहीं है। हैं, अपितु उनमें एक ही साथ विभिन्न कालों के सन्दर्भ उपलब्ध हैं । वह ईसा पूर्व पाँचवीं शती से लेकर ईसा की पाँचवी शती तक अर्थात् अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उन्हें निम्न काल खण्डों में विभाजित एक हजार वर्ष की सुदीर्घ कालावधि में निर्मित, परिष्कारित और किया जा सकता है - परिवर्तित होता रहा है अत: उसके समग्र सन्दर्भ एक ही काल के नहीं १. पूर्व युग - ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक । हैं । पुनः उनमें भी जो कथा भाग है, वह मूलत: अनुश्रुतिपरक और २. आगम युग - ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर ई० सन् की प्रागैतिहासिक काल से सम्बन्ध रखता है । अत: उनमें अपने काल से पाँचवीं शताब्दी तक । भी पूर्व के अनेक तथ्य उपस्थित हैं जो अनुश्रुति से प्राप्त हुए हैं। उनमें ३. प्राकृत आगमिक व्याख्या युग - ईसा की पाँचवी शताब्दी से कुछ ऐसे भी तथ्य हैं जिनकी ऐतिहासिकता विवादास्पद हो सकती है आठवीं शताब्दी तक । और उन्हें मात्र पौराणिक कहा जा सकता है । जहाँ तक आगमिक ४. संस्कृत आगमिक व्याख्या एवं पौराणिक कथा साहित्य व्याख्या साहित्य का सम्बन्ध है, वह मुख्यतः आगम ग्रन्थों पर प्राकृत युग - आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक । एवं संस्कृत में लिखी गयी टीकाओं पर आधारित है अत: इसकी इसी सन्दर्भ में एक कठिनाई यह भी है कि इन परवर्ती आगमों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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