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________________ जैन धर्म और सामाजिक समता ५४५ उच्चगोत्र एवं निम्नगोत्र की चर्चा उपलब्ध है किन्तु गोत्र का सम्बन्ध पर सुन्दर महल व झोपड़ी पर समान रूप से बरसता है । जिस प्रकार परिवेश के अच्छे या बुरे होने से है । गोत्र का सम्बन्ध जाति अथवा बादल बिना भेद-भाव के सर्वत्र जल की वृष्टि करते हैं उसी प्रकार मुनि स्पृश्यता-अस्पृश्यता के साथ जोड़ना भ्रान्ति है । जैन कर्म सिद्धान्त के को भी ऊँच-नीच, धनी-निर्धन का विचार किये वगैर सर्वत्र सन्मार्ग का अनुसार देवगति में उच्च गोत्र का उदय होता है और तिर्यंच मात्र में नीच उपदेश करना चाहिए२८ । यह बात भिन्न है कि उसमें से कौन कितना गोत्र का उदय होता है किन्तु देवयोनि में भी किल्विषिक देव नीच एवं ग्रहण करता है । जैन धर्म में जन्म के आधार पर किसी को निम्न या अस्पृश्यवत् होते हैं । इसके विपरीत अनेक निम्न गोत्र में उत्पन्न पशु उच्च नहीं कहा जा सकता हाँ वह इतना अवश्य मानता है कि अनैतिक जैसे-- गाय, घोड़ा, हाथी बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। आचरण करना अथवा क्रूर कर्म द्वारा अपनी आजीविका अर्जन करना वे अस्पृश्य नहीं माने जाते । अत: उच्चगोत्र में उत्पन्न व्यक्ति भी हीन योग्य नहीं है, ऐसे व्यक्ति अवश्य हीन कर्मा कहे गये हैं किन्तु वे अपने और नीचगोत्र में उत्पन्न व्यक्ति भी उच्च हो सकता है । अत: गोत्रवाद क्रूर एवं अनैतिक कर्मों का परित्याग करके श्रेष्ठ बन सकते हैं। की धारणा को प्रचलित जातिवाद तथा स्पृश्यास्पृश्य की धारणा के साथ ज्ञातव्य है कि आज भी जैन धर्म में और जैन श्रमणों में विभिन्न नहीं जोड़ना चाहिए । भगवान् महावीर ने प्रस्तुत सूत्र में जाति-मद, गोत्र- जातियों के व्यक्ति प्रवेश पाते हैं । मात्र यही नहीं श्रमण जीवन को मद आदि को निरस्त करते हुए यह स्पष्ट कह दिया है कि 'जब आत्मा अंगीकार करने के साथ ही निम्न व्यक्ति भी सभी का उसी प्रकार अनेक बार उच्च-नीच गोत्र का स्पर्श कर चुका है, कर रहा है तब फिर आदरणीय बन जाता है, जिस प्रकार उच्चकुल या जाति का व्यक्ति । कौन ऊँचा है? कौन नीचा ? ऊँच-नीच की भावना मात्र एक अहंकार जैनसंघ में उनका स्थान समान होता है । यद्यपि मध्यकाल में हिन्दू है और अहंकार 'मद' है । मद नीचगोत्र के बन्धन का मुख्य कारण परम्परा के प्रभाव से विशेष रूप से दक्षिण भारत में जातिवाद का प्रभाव है। अत: इस गोत्रवाद व मानवाद की भावना से मुक्त होकर जो उनमें जैन समाज पर भी आया और मध्यकाल में मातंग आदि जाति-जुंगित तटस्थ रहता है, वही समत्वशील है, वही पण्डित है। (निम्नजाति) एवं मछुआरे, नट आदि कर्म जुंगित व्यक्तियों का श्रमण मथुरा से प्राप्त अभिलेखों का जब हम अध्ययन करते हैं तो संस्था में प्रवेश अयोग्य माना गया। जैन आचार्यों ने इसका कोई हमें ज्ञात होता है कि न केवल प्राचीन आगमों से अपितु इन अभिलेखों आगमिक प्रमाण न देकर मात्र लोकापवाद का प्रमाण दिया, जो स्पष्ट से भी यही फलित होता है कि जैन धर्म ने सदैव ही सामाजिक समता रूप से इस तथ्य का सूचक है कि जैन परम्परा को जातिवाद बृहद् हिन्दू पर बल दिया है और जैनधर्म में प्रवेश का द्वार सभी जातियों के व्यक्तियों प्रभाव के कारण लोकापवाद के भय से स्वीकारना पड़ा। के लिये समान रूप से खुला रहा है। मथुरा के जैन अभिलेख इस तथ्य इसी के परिणामस्वरूप दक्षिण भारत में विकसित जैन धर्म के स्पष्ट प्रमाण हैं कि जैन मन्दिरों के निर्माण और जिन प्रतिमाओं की की दिगम्बर परम्परा में जो शूद्र की दीक्षा एवं मुक्ति के निषेध की प्रतिष्ठा में धनी-निर्धन, ब्राह्मण-शूद्र सभी वर्गों, जातियों एवं वर्गों के अवधारणा आई, वह सब ब्राह्मण परम्परा के प्रभाव के कारण ही था। लोग समान रूप से भाग लेते थे। मथुरा के अभिलेखों में हम यह पाते यद्यपि हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि दक्षिण में जो निम्न जाति हैं कि लोहार, सुनार, गन्धी, केवट, लौहवणिक, नर्तक और यहाँ तक के लोग जैनधर्म का पालन करते थे, वे इस सबके बावजूद जैनधर्म से कि गणिकायें भी जिन मन्दिरों का निर्माण व जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा जुड़े रहे और वे आज भी पंचम वर्ण के नाम से जाने जाते हैं । यद्यपि करवाती थीं२६ । ज्ञातव्य है कि मथुरा के इन अभिलेखों में लगभग ६०% बृहद हिन्दू समाज के प्रभाव के कारण जैनों ने अपने प्राचीन मानवीय दानदाता उन जातियों से हैं, जिन्हें सामान्यतया निम्न माना जाता है। समता के सिद्धान्त का जो उल्लंघन किया, उसका परिणाम भी उन्हें स्थूलिभद्र की प्रेयसी कोशा वेश्या द्वारा जैनधर्म अंगीकार करने की कथा भुगतना पड़ा और जैनों की जनसंख्या सीमित हो गयी। तो लोक-विश्रुत है ही२७ । मथुरा के अभिलेखों में भी गणिका नादा द्वारा विगत वर्षों में सद्भाग्य से जैनों में विशेष रूप से श्वेताम्बर देव कुलिका की स्थापना भी इसी तथ्य को सूचित करती है कि एक परम्परा में यह समतावादी दृष्टि पुनः विकसित हुई है। कुछ जैन आचार्यों गणिका भी श्राविका के व्रतों को अंगीकार करके उतनी ही आदरणीय के इस दिशा में प्रयत्न के फलस्वरूप कुछ ऐसी जातियाँ जो निम्न एवं बन जाती थी, जितनी कोई राज-महिषी । आवश्यकचूर्णि और तित्थोगाली क्रूरकर्मा समझी जाती थीं, न केवल जैन धर्म में दीक्षित हुईं अपितु प्रर्कीणक में वर्णित कोशा वेश्या का कथानक और मथुरा में नादा नामक उन्होंने अपने हिंसक व्यवसाय को त्याग कर सदाचारी जवीन को गणिका द्वारा स्थापित देव कुलिका, आयगपट्ट आदि इस तथ्य के स्पष्ट अपनाया है। विशेष रूप से खटिक और बलाई जातियाँ जैन धर्म से प्रमाण हैं । जैन धर्म यह भी मानता है कि कोई दुष्कर्मा व दुराचारी व्यक्ति जुड़ी हैं । खटिकों (हिन्दू-कसाइयों ) के लगभग पाँच हजार परिवार भी अपने दुष्कर्म का परित्याग करके सदाचार पूर्ण नैतिक-जीवन व समीर मुनिजी की विशेष प्रेरणा से अपने हिंसक व्यवसाय और मदिरा व्यवसाय को अपना कर समाज में प्रतिष्ठित बन सकता है । जैन साधना का सेवन आदि व्यसनों का परित्याग करके जैन धर्म से जुड़े और ये का राजमार्ग तो उसका है जो उस पर चलता है, वर्ण, जाति या वर्ग परिवार आज न केवल समृद्ध व सम्पन्न है, अपितु जैन समाज में भी विशेष का उस पर एकाधिकार नहीं है । जैन धर्म साधना का उपदेश तो बराबरी का स्थान पा चुके हैं । इसी प्रकार बलाईयों (हरिजनों) का भी वर्षा ऋतु के जल के समान है, जो ऊँचे पर्वतों, नीचे खेत-खलिहानों एक बड़ा तबका मालवा में आचार्य नानालाल जी की प्रेरणा से मदिरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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