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________________ ५४२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ धम्मपद में भी कहा गया है कि 'जैसे कमल पत्र पर पानी से ब्राह्मण हुए हैं। इसलिए ब्राह्मण होने में जाति विशेष में जन्म कारण होता है, जैसे आरे की नोंक पर सरसों का दाना होता है, वैसे ही जो नहीं हैं, अपितु तप या सदाचार ही कारण है। कामों में लिप्त नहीं होता, जिसने अपने दुःखों के क्षय को यहीं पर देख लिया है, जिसने जन्म-मरण के भार को उतार दिया है, जो सर्वथा कर्मणा वर्ण-व्यवस्था जैनों को भी स्वीकार्य अनासक्त है, जो मेधावी है, स्थितप्रज्ञ है, जो सन्मार्ग तथा कुमार्ग को जैन परम्परा में वर्ण का आधार जन्म नहीं अपितु कर्म माना जानने में कुशल है और जो निर्वाण की उत्तम स्थिति को पहुँच चुका है- गया है । जैन विचारणा जन्मना जातिवाद की विरोधी है किन्तु कर्मणा उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध वर्णव्यवस्था से उसका कोई सैद्धान्तिक विरोध नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र दोनों परम्पराओं ने ही सदाचार के आधार पर ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता को में कहा गया है कि -- 'मनुष्य कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय एवं कर्म स्वीकार करते हुए, ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की जो सदाचार से वैश्य एवं शूद्र होता है ।' महापुराण में कहा गया कि जातिनाम कर्म और सामाजिक समता की प्रतिष्ठापक थी । न केवल जैन परम्परा एवं के उदय से तो मनुष्य जाति एक ही है । फिर भी आजीविका भेद से बौद्ध-परम्परा में वरन् महाभारत में भी ब्राह्मणत्व की यही परिभाषा है। वह चार प्रकार की कही गई है । व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रों को जैन परम्परा के उत्तराध्ययन सूत्र, बौद्ध-परम्परा के धम्मपद और महाभारत धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक अर्थ का उपार्जन करने से वैश्य और के शान्तिपर्व में सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप का जो विवरण मिलता है, वह निम्न श्रेणी की आजीविका का आश्रय लेने से शूद्र कहे जाते हैं । धनन केवल वैचारिक साम्यता रखता है, वरन् उसमें शाब्दिक साम्यता भी धान्य आदि सम्पत्ति एवं मकान मिल जाने पर गुरु की आज्ञा से, अलग अधिक है जो कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। से आजीविका अर्जन करने से वर्ण की प्राप्ति या वर्ण लाभ होता है सच्चा ब्राह्मण कौन है? इस विषय में 'कुमारपाल प्रबोध (४०/१८९,१९०)। इसका तात्पर्य यही है कि वर्ण या जाति प्रबन्ध' में मनुस्मृति एवं महाभारत से कुछ श्लोक उद्धृत करके यह सम्बन्धी भेद जन्म पर नहीं, आजीविका या वृत्ति पर आधारित है । बताया गया है कि --'शील सम्पन्न शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो जाता भारतीय वर्ण व्यवस्था के पीछे एक मनोवैज्ञानिक आधार रहा है कि है और सदाचार रहित ब्राह्मण भी शूद्र के समान हो जाता है । अतः सभी वैयक्तिक योग्यता अर्थात् स्वभाव के आधार पर ही व्यक्ति के सामाजिक जातियों में चाण्डाल और सभी जातियों में ब्राह्मण होते हैं । हे अर्जुन ! दायित्वों (कर्मों) का निर्धारण करती है जिससे इंकार नहीं किया जा जो ब्राह्मण कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा एवं राज्य की सेवा करते हैं वे सकता है । वस्तुत: ब्राह्मण नहीं हैं । जो भी द्विज हिंसक, असत्यवादी, चौर्यकर्म में अपनी स्वाभाविक योग्यता के आधार पर सामाजिक दायित्वों लिप्त, परदार सेवी हैं वे सभी पतित (शूद्र) हैं। इसके विपरीत ब्रह्मचर्य का निर्वाह करने का सर्मथन डॉ.राधाकृष्णन् और पाश्चात्य विचारक श्री और तप से युक्त लौह व स्वर्ण में समान भाव रखने वाले, प्राणियों के गैरल्ड हर्ड ने भी किया है । मानवीय स्वभाव में ज्ञानात्मकता या प्रति दयावान् सभी जाति के व्यक्ति ब्राह्मण ही हैं। जिज्ञासा-वृत्ति, साहस या नेतृत्व-वृत्ति, संग्रहात्मकता और शासित होने सच्चे ब्राह्मण के लक्षण बताते हुए कहा गया है --'जो व्यक्ति की प्रवृत्ति या सेवा भावना पायी जाती है। सामान्यत: मनुष्यों में इन क्षमाशील आदि गुणों से युक्त हो, जिसने सभी दण्डों (परपीडन) का वृत्तियों का समान रूप से विकास नहीं होता है । प्रत्येक मनुष्य में इनमें परित्याग कर दिया है, जो निरामिष-भोजी है और किसी भी प्राणि की से किसी एक का प्राधान्य होता है । दूसरी ओर सामाजिक दृष्टि से हिंसा नहीं करता --यह किसी व्यक्ति के ब्राह्मण होने का प्रथम लक्षण समाज-व्यवस्था में चार-प्रमुख कार्य हैं -- १. शिक्षण २. रक्षण ३. है। इसी प्रकार जो कभी असत्य नहीं बोलता, मिथ्यावचनों से दूर रहता उपार्जन और ४.सेवा । अत: यह आवश्यक माना गया है कि व्यक्ति, है --यह ब्राह्मण का द्वितीय लक्षण है । पुन: जिसने परद्रव्य का त्याग अपने स्वभाव में जिस वृत्ति का प्राधान्य हो, उसके अनुसार सामाजिक कर दिया है तथा जो अदत्त को ग्रहण नहीं करता, यह उसके ब्राह्मण व्यवस्था में अपना कार्य चुने । जिसमें बुद्धि नैर्मल्य और जिज्ञासावृत्ति हो, होने का तृतीय लक्षण है । जो देव, असुर, मनुष्य तथा पशुओं के प्रति वह शिक्षण का कार्य करे; जिसमें साहस और नेतृत्व वृत्ति हो वह रक्षण मैथुन का सेवन नहीं करता -- वह उसके ब्राह्मण होने का चतुर्थ लक्षण का कार्य करे; जिसमें विनियोग तथा संग्रह-वृत्ति हो वह उपार्जन का कार्य है। जिसने कुटुम्ब का वास अर्थात् गृहस्थाश्रम का त्याग कर दिया हो, करे और जिसमें दैन्यवृत्ति या सेवावृत्ति हो वह सेवा कार्य करे। इस जो परिग्रह और आसक्ति से रहित है, यह ब्राह्मण होने का पंचम लक्षण प्रकार जिज्ञासा, नेतृत्व, विनियोग और दैन्य की स्वाभाविक वृत्तियों के है । जो इन पाँच लक्षणों से युक्त है वही ब्राह्मण है, द्विज है और महान् आधार पर शिक्षण, रक्षण, उपार्जन और सेवा के सामाजिक कार्यों का है, शेष तो शूद्रवत् हैं । केवट की पुत्री के गर्भ से उत्पन्न व्यास नामक विभाजन किया गया और इसी आधार पर क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य महामुनि हुए हैं । इसी प्रकार हरिणी के गर्भ से उत्पन्न शृंग ऋषि, शुनकी और शूद्र ये वर्ण बने । अत: वर्ण व्यवस्था जन्म पर नहीं, अपितु स्वभाव के गर्भ से शुक, माण्डूकी के गर्भ से मांडव्य तथा उर्वशी के गर्भ से (गुण) एवं तदनुसार कर्म पर आधारित है । उत्पन्न वशिष्ठ महामुनि हुए । न तो इन सभी ऋषियों की माता ब्राह्मणी वास्तव में हिन्दू आचार-दर्शन में भी वर्ण-व्यवस्था जन्म पर हैं न ये संस्कार से ब्राह्मण हुए थे, अपितु ये सभी तप साधना या सदाचार नहीं वरन् कर्म पर ही आधारित है । गीता में श्री कृष्ण स्पष्ट कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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