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________________ जैन धर्म और सामाजिक समता ५४१ साधना का उसमें प्रवेश का द्वार सभी के लिए बिना भेद-भाव के खुला है। जिस प्रकार नट रंगशाला में कार्य स्थिति के अनुरूप विचित्र वेशभूषा रहना चाहिए । जैन धर्म स्पष्ट रूप से इस बात को मानता है कि किसी को धारण करता है उसी प्रकार यह जीव भी संसार रूपी रंगमंच पर कर्मों जाति या वर्ण-विशेष में जन्म लेने से कोई व्यक्ति श्रेष्ठ या हीन नहीं के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों को प्राप्त होता है । तत्त्वत: आत्मा न ब्राह्मण होता। उसे जो हीन या श्रेष्ठ बनाता है, वह है उसका अपना पुरुषार्थ, है, न क्षत्रिय, न वैश्य और न शूद्र ही। वह तो अपने ही पूर्व कर्मों के उसकी अपनी साधना, सदाचार और कर्म । हम जैनों के इसी दृष्टिकोण वश में होकर संसार में विभिन्न रूपों में जन्म ग्रहण करता है । यदि शरीर को अग्रिम पृष्ठों में सप्रमाण प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेगें। के आधार पर ही किसी को ब्राह्मण, क्षत्रिय कहा जाय, तो यह भी उचित जन्मना वर्ण-व्यवस्था : एक असमीचीन अवधारणा नहीं है । विज्ञ-जन देह को नहीं ज्ञान (योग्यता) को ही ब्रह्म कहते जैन आचार्य श्रुति के इस कथन को स्वीकार नहीं करते हैं कि हैं। अत: निकृष्ट कहा जाने वाला शूद्र भी ज्ञान या प्रज्ञा-क्षमता के आधार ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय की बाहु से, वैश्यों की जंघा पर वेदाध्ययन करने का पात्र हो सकता है । विद्या, आचरण एवं सद्गुण से और शूद्र की पैरों से हुई है । चूँकि मुख श्रेष्ठ अंग है, अत: इन सबमें से रहित व्यक्ति जाति विशेष में जन्म लेने मात्र से ब्राह्मण नहीं हो जाता, ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है। । ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न अंगों से जन्म के आधार अपितु अपने ज्ञान, सद्गुण आदि से युक्त होकर ही ब्राह्मण होता है। पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ऐसी वर्ण-व्यवस्था जैन चिन्तकों को व्यास, वशिष्ठ, कमठ, कंठ, द्रोण, पराशर आदि अपने जन्म के आधार स्वीकार नहीं है। उनका कहना है कि सभी मनुष्य स्त्री-योनि से ही उत्पन्न पर नहीं, अपितु अपने सदाचरण एवं तपस्या से ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त होते हैं । अत: सभी समान हैं । पुनः इन अंगों में से किसी को श्रेष्ठ हुए थे । अत: ब्राह्मणत्व आदि सदाचार और कर्तव्यशीलता पर एवं उत्तम और किसी को निकृष्ट या हीन मानकर वर्ण-व्यवस्था में आधारित है - जन्म पर नहीं । श्रेष्ठता एवं हीनता का विधान नहीं किया जा सकता है, क्योंकि शरीर के सभी अंग समान महत्त्व के हैं। इसी प्रकार शारीरिक वर्णों की भिन्नता सच्चा ब्राह्मण कौन ? के आधार पर किया गया ब्राह्मण आदि जातियों का वर्गीकरण भी जैनों जैन परम्परा ने सदाचरण को ही मानवीय जीवन में उच्चता को मान्य नहीं है। और निम्नता का प्रतिमान माना है । उत्तराध्ययन सूत्र के पच्चीसवें आचार्य जटासिंह नन्दि ने अपने वरांगचरित में इस बात का अध्ययन एवं धम्मपद के ब्राह्मण वर्ग नामक अध्याय में सच्चा ब्राह्मण विस्तार से विवेचन किया है कि शारीरिक विभिन्नताओं या वर्गों के कौन है, इसका विस्तार से विवेचन उपलब्ध है । विस्तार भय से उसकी आधार पर किया जाने वाला जाति सम्बन्धी वर्गीकरण मात्र पशु-पक्षी समग्र चर्चा में न जाकर केवल कुछ गाथाओं को प्रस्तुत कर ही विराम आदि के विषय में ही सत्य हो सकता है, मनुष्यों के सन्दर्भ में नहीं। लेगें। उसमें कहा गया है कि 'जिसे लोक में कुशल पुरुषों ने ब्राह्मण वनस्पति एवं पशु-पक्षी आदि में जाति का विचार सम्भव है, किन्तु कहा है, जो अग्नि के समान सदा पूजनीय है और जो प्रियजनों के आने मनुष्य के विषय में यह विचार संभव नहीं है, क्योंकि सभी मनुष्य समान पर आसक्त नहीं होता और न उनके जाने पर शोक करता है, जो सदा हैं। मनुष्यों की एक ही जाति है । न तो सभी ब्राह्मण शुभ्र वर्ण के होते आर्य-वचन में रमण करता है, उसे ब्राह्मण कहते हैं।' हैं, न सभी क्षत्रिय रक्त वर्ण के, न सभी वैश्य पीत वर्ण के और न सभी 'कसौटी पर कसे हुए और अग्नि के द्वारा दग्धमल हुए, शुद्ध शुद्र कृष्ण वर्ण के होते हैं। अत: जन्म के आधार पर जाति व वर्ण का किये गए जात रूप सोने की तरह जो विशुद्ध है, जो राग, द्वेष और भय निश्चय सम्भव नहीं है। __ से मुक्त है तथा जो तपस्वी है, कृश है, दान्त है, जिसका मांस और समाज में ऊँच-नीच का आधार किसी वर्ण विशेष या जाति रक्त अपचित (कम) हो गया है, जो सुव्रत है, शांत है, उसे ही ब्राह्मण विशेष में जन्म लेना नहीं माना जा सकता । न केवल जैन परम्परा, कहा जाता है।' अपितु हिन्दू परम्परा में भी अनेक उदाहरण है जहाँ निम्न वर्षों से उत्पन्न 'जो त्रस और स्थावर जीवों को सम्यक प्रकार से जानकर व्यक्ति भी अपनी प्रतिभा और आचार के आधार पर श्रेष्ठ कहलाये। उनकी मन, वचन और काया से हिंसा नहीं करता है, जो क्रोध, हास्य, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता पर प्रश्न चिह्न लगाते हुए वंरागचरितमें जटासिंह लोभ अथवा भय से झूठ नहीं बोलता, जो सचित्त या अचित्त, थोड़ा या नन्दि कहते हैं कि 'जो ब्राह्मण स्वयं राजा की कृपा के आकांक्षी हैं और अधिक अदत्त नहीं लेता है, जो देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी मैथुन उनके द्वारा अनुशासित होकर उनके अनुग्रह की अपेक्षा रखते हैं, ऐसे का मन, वचन और शरीर से सेवन नहीं करता है, जिस प्रकार जल में दीन ब्राह्मण नृपों (क्षत्रियों) से कैसे श्रेष्ठ कहे जा सकते हैं । द्विज ब्रह्मा उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो कामभोगों के मुख से निर्गत हुए अत: श्रेष्ठ हैं -- यह वचन केवल अपने स्वार्थों से अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।' की पूर्ति के लिए कहा गया है। ब्राह्मण प्रतिदिन राजाओं की स्तुति करते इसी प्रकार जो रसादि में लोलुप नहीं है, जो निर्दोष भिक्षा से हैं और उनके लिए स्वस्ति पाठ एवं शान्ति पाठ करते हैं, लेकिन वह जीवन का निर्वाह करता है, जो गृह त्यागी है, जो अंकिचन है, सब भी धन की आशा से ही किया जाता है अत: ऐसे ब्राह्मण आप्तकाम पूर्वज्ञातिजनों एवं बन्धु-बान्धवों में आसक्त नहीं रहता है, उसे ही ब्राह्मण नहीं माने जा सकते हैं । फलत: इनका अपनी श्रेष्ठता का दावा मिथ्या कहते है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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