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________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना ५२९ विद्यमान रहें । इस प्रकार इन भावनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न सामाजिक सम्बन्धों के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती क्तियों से हमारे सम्बन्ध किस प्रकार के हों, यही स्पष्ट किया है। सामान्यतया राग द्वेष का सहगामी होता है और जब सम्बन्ध रागगया है । समाज मे दूसरे लोगों के साथ हम किस प्रकार जीवन जियें द्वेष के आधार पर खड़े होते हैं तो इन सम्बन्धों से टकराहट एवं विषमता यह हमारी सामाजिकता के लिए अति आवश्यक है और इन दर्शनों में स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है । बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिदेव इस प्रकार से व्यक्ति को समाज-जीवन से जोड़ने का ही प्रयास किया लिखते हैं - गया है । इन दर्शनों का हृदय रिक्त नहीं है। इनमें प्रेम और करुणा की उपद्रवा ये च भवन्ति लोके यावन्ति दुःखानि भयानि चैव । अटूट धारा बह रही है । तीर्थंकर की वाणी का प्रस्फुटन ही लोक की सर्वाणि तान्यात्म परिग्रहेण तत् किं ममानेन परिग्रह ।। करुणा के लिए होता है (समेच्च लोये खेयन्ने पण्बेइये) । इसीलिए तो आत्मान् परित्यज्य दुःख त्यैक्तुं न शक्यते । आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं 'सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदय तीर्थमिदं यथाग्नि परित्यज्य दाहं त्यैक्तुं न शक्यते ।। तवैव' 'हे प्रभु ! आपका अनुशासन सभी दु:खों का अन्त करने वाला -बोधिचर्यावतार, ८/१३४-१३५ और सभी का कल्याण, सर्वोदय करने वाला है । ' जैन आगमों में संसार के सभी दुःख और भय एवं तद्जन्य उपद्रव ममत्व के प्रस्तुत कुल धर्म, ग्राम-धर्म, नगर-धर्म, राष्ट्र-धर्म एवं गण-धर्म भी कारण होते हैं । जब तक ममत्व बुद्धि का परित्याग नहीं किया जाता उसकी समाज-सापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं । त्रिपिटिक में भी अनेक तब तक इन दुःखों की समाप्ति सम्भव नहीं है । जैसे अग्नि का परित्याग सन्दर्भो में व्यक्ति के विविध सामाजिक सम्बन्धों के आदर्शों का चित्रण किये बिना तज्जन्य दाह से बचना असम्भव है । राग हमें सामाजिक किया गया है । इन सब पर इस लघु निबन्ध में प्रकाश डाल पाना जीवन से जोड़ता नहीं है, अपितु तोड़ता ही है । राग के कारण मेरा या सम्भव नहीं है । पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक ममत्व भाव उत्पन्न होता है । मेरे सम्बन्धी, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा . सम्बन्धों को सुमधुर एवं समायोजनपूर्ण बनाने तथा सामाजिक टकराव राष्ट्र ये विचार विकसित होते हैं और उसके परिणामस्वरूप भाईके कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए इन दर्शनों का भतीजावाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और संकुचित राष्ट्रवाद का जन्म महत्त्वपूर्ण योगदान है। होता है । आज मानव जाति के सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों में ये ही होता है। वस्तुत: इन दर्शनों ने आचार शुद्धि पर बल देकर व्यक्ति सुधार सबसे अधिक बाधक तत्त्व हैं । ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, के माध्यम से समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया । इन्होंने व्यक्ति को साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर नहीं उठने देते हैं । वे ही समाज का केन्द्र माना और इसलिए उसके चरित्र के निर्माण पर बल आज की विषमता के मूल कारण हैं । भारतीय दर्शन ने राग या आसक्ति दिया । वस्तुतः इन दर्शनों के युग तक समाज-रचना का कार्य पूरा हो के प्रहाण पर बल देकर सामाजिकता की एक यथार्थ दृष्टि ही प्रदान की चुका था अतः इन्होंने मुख्य रूप से सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने है। प्रथम तो यह कि राग किसी पर होता है और जो किसी पर होता का प्रयास किया और सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि पर बल दिया। है वह सब नहीं हो सकता है । अत: राग से ऊपर उठे बिना या आसक्ति (४) छोड़ बिना सामाजिकता की सच्ची भूमिका प्राप्त नहीं की जा सकती। सम्भवतः भारतीय दर्शन को जिन आधारों पर सामाजिक सामाजिक जीवन की विषमताओं का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा ही जीवन से कटा हुआ माना जाता है उनमें प्रमुख हैं राग या आसक्ति का है। व्यक्ति जिसे अपना मानता है उसके हित की कामना करता है और प्रहाण, संन्यास या निवृत्ति मार्ग की प्रधानता तथा मोक्ष का प्रत्यय । ये जिसे पराया मानता है उसके हित की उपेक्षा करता है । सामाजिक जीवन ही ऐसे तत्त्व हैं जो व्यक्ति को सामाजिक जीवन से अलग करते हैं। में शोषण, क्रूर व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किये जाते हैं, अत: भारतीय सन्दर्भ में इन प्रत्ययों की सामाजिक दृष्टि से समीक्षा जिन्हें हम अपना नहीं मानते हैं । यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है कि हम आवश्यक है। अपनी रागात्मकता या ममत्ववृत्ति का पूर्णतया विसर्जन कर सकें किन्तु सर्वप्रथम भारतीय दर्शन आसक्ति, राग या तृष्णा की समाप्ति यह भी उतना ही सत्य है कि उसका एक सीमा तक विसर्जन किये बिना पर बल देता है, किन्तु प्रश्न यह है कि क्या आसक्ति या राग से ऊपर अपेक्षित सामाजिक जीवन का विकास नहीं हो सकता । व्यक्ति का उठने की बात सामाजिक जीवन से अलग करती है। सामाजिक जीवन ममत्व चाहे वह व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन या राष्ट्र की सीमा का आधार पारस्परिक सम्बन्ध है और सामान्यतया यह माना जाता है तक विस्तृत हो, हमें स्वार्थ-भावना से ऊपर नहीं उठने देता । स्वहित कि राग से मुक्ति या आसक्ति की समाप्ति तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति की वृत्ति चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति, समान रूप से अपने को सामाजिक जीवन से या पारिवारिक जीवन से अलग कर सामाजिकता की विरोधी ही सिद्ध होती है । उसके होते हुए सच्चा ले । किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है । न तो सम्बन्ध तोड़ देने मात्र सामाजिक जीवन फलित नहीं हो सकता । जिस प्रकार परिवार के प्रति से राग समाप्त हो जाता है, न राग के अभाव मात्र से सम्बन्ध टूट जाते ममत्व का सघन रूप हममें राष्ट्रीय चेतना का विकास नहीं कर सकता हैं, वास्तविकता तो यह है कि राग या आसक्ति की उपस्थिति में हमारे उसी प्रकार राष्ट्रीयता के प्रति भी ममत्व सच्ची मानवीय एकता में यथार्थ सामाजिक सम्बन्ध ही नहीं बन पाते । सामाजिक जीवन और सहायक सिद्ध नहीं हो सकता । जिन राष्ट्रों में व्यावहारिक सच्चाई एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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