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________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना ५२७ वैयक्तिकता से ऊपर उठकर सामाजिक एकता के लिए अभेद-निष्ठा का जिस प्रकार हाथ आदि शरीर के अवयव होने के कारण प्रिय सर्वोत्कृष्ट तात्त्विक आधार प्रस्तुत किया गया। इस प्रकार जहाँ वेदों की होते हैं वैसे ही सब प्राणी जगत् के अवयव होने के कारण क्यों प्रिय समाज-निष्ठा बर्हिमुखी थी, वहीं उपनिषदों में आकर अतमुखी हो नहीं होंगे । गीता भी इस एकात्मता की अनुभूति पर बल देती है । गयी। भारतीय दर्शन में यह अभेद-निष्ठा ही सामाजिक एकत्व की गीताकार कहता है कि - चेतना एवं सामाजिक समता का आधार बनी है। ईशावास्योपनिषद का 'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । ऋषि कहता था - सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमोमतः ।।' यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति । (गीता, ६/३२) सर्व-भूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ।। अर्थात् जो सुख-दुःख की अनुभूति में सभी को अपने समान जो सभी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों समझता है वही सच्चा योगी है । मात्र इतना ही नहीं, वह तो इससे आगे में देखता है वह अपनी इस एकात्मा की अनुभूति के कारण किसी से यह भी कहता है कि सच्चा दर्शन या ज्ञान वही है जो हमें एकात्मा की घृणा नहीं करता है । सामाजिक जीवन के विकास का आधार एकात्मा अनुभूति कराता है ‘अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम्' । की अनुभूति है और जब एकात्मा की दृष्टि का विकास हो जाता है तो वैयक्तिक विभिन्नताओं में भी एकात्मा की अनुभूति ही ज्ञान की सात्विकता घृणा और विद्वेष के तत्त्व स्वत: समाप्त हो जाते हैं । इस प्रकार जहाँ और हमारी समाज-निष्ठा का एक मात्र आधार है । सामाजिक दृष्टि से एक ओर औपनिषदिक ऋषियों ने एकात्मा की चेतना को जाग्रत कर गीता 'सर्वभूत-हिते रताः' का सामाजिक आदर्श भी प्रस्तुत करती सामाजिक जीवन के विनाशक घृणा एवं विद्वेष के तत्त्वों को समाप्त है। अनासक्त भाव से युक्त होकर लोक-कल्याण के लिए कार्य करते करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने सम्पत्ति के वैयक्तिक रहना ही गीता के समाज दर्शन का मूल मन्तव्य है । श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप अधिकार का निरसन कर ईश्वरीय सम्पदा अर्थात् सामूहिक सम्पदा का से कहते हैं - विचार भी प्रस्तुत किया। ईशावास्योपनिषद् के प्रारम्भ में ही ऋषि कहता है : 'ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः' (गीता, १२/४) ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्चि जगत्यां जगत् । मात्र इतना ही नहीं, गीता में सामाजिक दायित्वों के निर्वहन तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृद्ध कस्यस्विद्धनम् ।। -ईशा०, १/१ पर भी परा-पूरा बल दिया गया है । जो अपने सामाजिक दायित्वों को अर्थात् इस जग में जो कुछ भी है वह सभी ईश्वरीय है ऐसा पर्ण किये बिना भोग करता है वह गीताकार की दृष्टि में चोर है (स्तेन कुछ भी नहीं है, जिसे वैयक्तिक कहा जा सके । इस प्रकार श्लोक के एव सः, ३/१२) । साथ ही जो मात्र अपने लिए पकाता है वह पाप पूर्वार्द्ध में वैयक्तिक अधिकार का निरसन करके समष्टि को प्रधानता दी का ही अर्जन करता है। (भंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् गई है। श्लोक के उत्तरार्द्ध में व्यक्ति के उपभोग एवं संग्रह के अधिकार ३/१३)। गीता हमें समाज में रहकर ही जीवन जीने की शिक्षा देती है को मर्यादित करते हुए कहा गया कि प्रकृति की जो भी उपलब्धियाँ हैं उनमें दूसरों (अर्थात् समाज के दूसरे सदस्यों) का भी भाग है । अत: इसलिए उसने संन्यास की नवीन परिभाषा भी प्रस्तुत की है। वह कहती उनके भाग को छोड़कर ही उनका उपयोग करो, संग्रह या लालच मत करो क्योंकि सम्पत्ति किसी एक की नहीं है । सम्भवतः सामाजिकता की 'काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः' चेतना के विकास के लिए इससे अधिक महत्त्वपूर्ण दूसरा कथन नहीं (गीता, १८/२) हो सकता था । यही कारण था कि गांधी जी ने इस श्लोक के सन्दर्भ में काम्य अर्थात स्वार्थ युक्त कर्मों का त्याग ही संन्यास है, कहा था कि यदि भारतीय संस्कृति का सभी कुछ नष्ट हो जाये किन्तु यह केवल निरग्नि और निष्क्रिय हो जाना संन्यास नहीं है। सच्चे संन्यासी श्लोक बना रहे तो यह अकेला ही उसकी अभिव्यक्ति में समर्थ है। तेन का लक्षण है समाज में रहकर लोक-कल्याण के लिए अनासक्त भाव त्यक्तेन भुंजीथा: में समग्र सामाजिक चेतना केन्द्रित दिखाई देती है। से कर्म करता रहे । यदि हम उपनिषदों के पश्चात् महाभारत और उसके ही एक अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः । अंश गीता की ओर आते हैं तो यहाँ भी हमें सामाजिक चेतना का स्पष्ट स संन्यासी च योगी च न निरग्नि न चाक्रियः ।। दर्शन होता है। महाभारत तो इतना व्यापक ग्रन्थ है कि उसमें उपस्थित (गीता ६/१) समाज-दर्शन पर एक स्वतन्त्र महानिबन्ध लिखा जा सकता है । गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोक-शिक्षा को चाहते हुए सर्वप्रथम महाभारत में और उसके पश्चात् आचार्य शान्तिदेव के बोधिचर्यावतार यावतार कर्म करता रहे (कुर्यात् विद्वान् तथासक्तः चिकीर्षु:लोकसंग्रहम् ३/२५)। में हमें समाज की आंगिक संकल्पना का वह सिद्धान्त परिलक्षित होता । गीता में गुणाश्रित कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था का जो आदर्श है, जिस पर पाश्चात्य चिन्तन में सर्वाधिक बल दिया गया है। आचार्य शान्तिदेव लिखते हैं - प्रस्तुत किया था वह भी सामाजिक दृष्टि से कर्तव्यों एवं दायित्वों के 'कायस्यावयवत्वेन यथाभीष्टा करादयः । विभाजन का एक महत्त्वपूर्ण कार्य था, यद्यपि भारतीय समाज का यह दुर्भाग्य था कि गुण अर्थात् वैयक्तिक योग्यता के आधार पर कर्म एवं जगतो ऽवयवत्वेन तथा कस्मान्न देहिनः ।।' (बोधिचर्यावतार, ८/११४) वर्ण का यह विभाजन किन्हीं स्वार्थों के कारण जन्मना बना दिया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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