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________________ ५१८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अधिपति हूँ, मैं ऐश्वर्य का भोग करने वाला हूँ, मैं सिद्ध, बलवान् भावों को अज्ञान कहा है। और सुखी हूँ, मैं बड़ा धनवान् और कुशलवान् हूँ, मेरे समान दूसरा कौन है-वह अज्ञान से विमोहित है।२० जो धन और सम्मान के मद ४. शौच (पवित्रता) से युक्त है वह भगवान् की पूजा का ढोंग करता है।२१ महाभारत में शौच पवित्रता का सूचक है। सामान्यता शौच का अर्थ दैहिक कहा है कि जब व्यक्ति पर रूप और धन का मद सवार हो जाता पवित्रता से लगाया जाता है। किन्तु जैन परम्परा में शौच शब्द का है तो वह ऐसा मानने लगता है कि मैं बड़ा कुलीन हूँ, सिद्ध हूँ, प्रयोग मानसिक पवित्रता के अर्थ में ही हुआ है। समवायांगसूत्र और साधारण मनुष्य नहीं हूँ। रूप, धन और कुल इन तीनों के अभिमान स्थानांगसूत्र की सूची में शौच स्थान पर 'लाघव' उल्लेख मिलता है। के कारण चित्त में प्रमाद भर जाता है, वह भोगों में आसक्त होकर वस्तुत: साधन के लिए मानसिक कालुष्य या वासनारूपी मल की शुद्धि बाप-दादों द्वारा संचित सम्पत्ति खो बैठता है। २२ आवश्यक है। विषय-वासनाओं या कषायों की गन्दगी हमारे चित्त को इस प्रकार जैन, बौद्ध और हिन्दू आचार दर्शन अभिमान का कलुषित करती है। अत: उसकी शुद्धि ही शौच धर्म है। पं० सुखलालजी त्याग करना और विनम्रता को अंगीकार करना आवश्यक मानते हैं। ने शौच का अर्थ निर्लोभता किया है३२, किन्तु यह उचित नहीं लगता जिस प्रकार नदी के मध्य रही हुई घास भयंकर प्रवाह में अपना अस्तित्व है, क्योंकि फिर इसका आकिञ्चन्य से भेद करना कठिन होगा। जैन बनाये रखती है, जबकि बड़े-बड़े वृक्ष संघर्ष में धराशायी हो जाते हैं, परम्परा के अनुसार शौच का अर्थ मानसिक शुद्धि करना ही अधिक उसी प्रकार जीवन-संघर्ष में विनीत व्यक्ति ही निरापद रूप से पार होते हैं। युक्तिसंगत है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि अकलुष मनोभावों से युक्त धर्मरूपी सरोवर में स्नान कर मन विमल एवं विशुद्ध बन ३. आर्जव जाता है। निष्कपटता या सरलता आर्जव गुण है। इसके द्वारा माया (कपट- गीता का दृष्टिकोण-गीता में शौच की गणना दैवी-सम्पदा, वृत्ति) कषाय पर विजय प्राप्त की जाती है। कुटिलवृत्ति (कपट) सद्भाव ब्रह्मचर्य एवं तप में की गई है। आचार्य शंकर ने अपने गीताभाष्य की विनाशक है, वह सामाजिक और वैयक्तिक दोनों जीवनों के लिए में शौच का अर्थ प्रतिपक्ष भावना के द्वारा अन्त:करण के रागादि मलों हानिकर है । व्यक्ति की दृष्टि से कपटवृत्ति एक प्रकार की आत्म- को दूर करना, भी किया है, जो कि जैन परम्परा के शौच के अर्थ प्रवंचना है, स्वयं अपने आप को धोखा देने की प्रवृत्ति है। जबकि के निकट है।३५ सामाजिक दृष्टि से कपटवृत्ति व्यवहार में शंका को जन्म देती है और पारस्परिक सद्भाव का नाश करती है। २३ यही शंका और कुशंका, ५. सत्य भय और असद्भाव, सामाजिक जीवन में विवाद और संघर्ष के प्रमुख सत्य धर्म से तात्पर्य है- सत्यता को अपनाना। असत्य भाषण कारण बनते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार आर्जव गुण के द्वारा ही से किस प्रकार विरत होना, सत्य किस प्रकार बोलना, यह विवेचन व्यक्ति विश्वासपात्र बनता है। जिसमें आर्जव गुण का अभाव है वह व्रत-प्रकरण में किया गया है। धर्म के प्रसंग में 'सत्य' का कथन यह सामाजिक जीवन में विश्वासपात्र नहीं बन पाता। किसी भी प्रकार का व्यक्त करता है कि साधक को अपने व्रतों एवं मर्यादाओं की प्रतिज्ञा दंभ (ढोंग) चाहे वह साधन से सम्बन्धित हो या जीव के अन्य व्यवहार के प्रति निष्ठावान् रहकर उनका उसी रूप में पालन करना सत्य धर्म से, अनुचित है। दशवकालिकसूत्र के अनुसार जो तपस्वी न होकर है। इस प्रकार यहाँ यह कर्तव्यनिष्ठा को व्यक्त करता है, जैसे हरिश्चन्द्र तपस्वी होने का ढोंग करता है वह तप-चोर है, जो पंडित न होने के प्रसंग में कर्तव्यनिष्ठा को ही सत्य धर्म के रूप में माना गया है। पर भी वाक्पटुता के द्वारा पाण्डित्य का प्रदर्शन करता है वह वचन- साधक का अपने प्रति सत्य (ईमानदार) होना ही सत्य धर्म का पालन चोर है, जो व्यक्ति इस प्रकार के ढोंग करता है, वह निम्न योनियों है। आचरण के सभी क्षेत्रों में पवित्रता ही सत्य धर्म है। कहा भी गया को प्राप्त करता है और संसार में भटकता रहता है, उसे यथार्थ ज्ञान है कि मन, वचन और काय की एकरूपता सत्य है अर्थात् जैसा विचार की उपलब्धि नहीं होती।२५ इसलिए कहा गया है कि बुद्धिमान् व्यक्ति वैसी ही वाणी और आचरण रखें, यही सत्यता है। वास्तव में यही कपट के इन दोषों को जानकर निष्कपट आचरण करे।२६ नैतिक जीवन की पहचान भी है। बौद्ध दृष्टिकोण-बुद्ध ने ऋजुता को कुशल धर्म कहा है। उनकी महावीर कहते हैं कि जो निष्ठापूर्वक सत्य की आज्ञा का पालन दृष्टि में माया या शठता (ठगी), दुर्गति, नरक का कारण है, जबकि करता है, वह बन्धन से मुक्त हो जाता है। सत्य के सन्दर्भ में महावीर ऋजुता (सरलता) सुख, सुगति, स्वर्ग और शैक्ष भिक्षु के लाभ का का दृष्टिकोण यही है कि व्यक्ति के जीवन में (अन्तः और बाह्य) एकरूपता कारण है।२७ होनी चाहिए।३६ अन्तरात्मा के प्रति निष्ठावान होना ही महाभारत और गीता का दृष्टिकोण-महाभारत के अनुसार सत्य धर्म है। सरलता एक आवश्यक सद्गुण है। २८ गीता में आर्जव को दैवी-सम्पदा,२९ तप और ब्राह्मण का स्वाभाविक गुण कहा गया है। आर्जव और अदम्भ ६. संयम सद्गुणों की गीताकार ने ज्ञान में गणना की है और इनके विरोधी जैन दर्शन के अनुसार पूर्व संचित-कर्मों के क्षय के लिए तप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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