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________________ तन्त्र-साधना और जैन जीवन दृष्टि ४८१ टीका ग्रन्थमाला, जामनगर, वि०सं० १९९७५ ८२. योगशास्त्र संपा० मुनि समदर्शी, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, ६५. धवला, पुस्तक १३ पृ० ७० १९६३ ७/२-६ ६७. योगसार, योगीन्दु देव, प्रका०- परमश्रुत प्रमावक मंडल बम्बई, ८३. स्थानांग सूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन १९३७, ९८ समिति, व्यावर, १९८१ ४/६९ ६८. ज्ञानसार, पद्मसिंह, टीका० त्रिलोकचन्द्र, म०कि० कापडिया, ८४. वही, ४/७० दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत, वी०सं० २४२०; १८-२८ ८५. वही, ४/७१ ६९. द्रव्यसंग्रह (नेमीचन्द्र) ४८-५४ टीका ब्रह्मदव गाथा ४८ की ८६. वही, ४/७२ ८७. तत्त्वार्थसूत्र विवे० पं० सुखलाल संघवी, प्रका०- पार्श्वनाथ विद्याश्रम ७०. पदस्थ मंत्रवाक्यस्थ- वही गाथा ४८ की टीका शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६ ९/३६-४० ७१. श्रावकाचार (अमितगति) परिच्छेद १५ ८८. आचारांग सूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन ७२. ज्ञानार्णव (शुभचन्द्र) संपा०- पं० बालचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति समिति, व्यावर १९८० १/९/१/६, १/९/२/४, १/९/२/ संघ, सोलापुर, १९७७ सर्ग ३२-४० ७३. स्थानांगसूत्र संपा०- मधुकर मुनि प्रका०- श्री आगम प्रकाशन ८९. वही, १/९/१/५ समिति, ब्यावर, १९८१ ४/६०-४० ९०. उत्तराध्ययन सूत्र, संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन ७४. वही, ४/६२ आगरा, १९७२ २६/१८ ७५. वही, ४/६३ ९१. आवश्यकचूर्णि भाग २ पृ० १८८७ ७६. वही,४/६४ ९२. वही, भाग १ पृ० ४१० ७७. वही, ४/६५ ९३. आचारांग (आचार्य तुलसी) जैन विश्वभारती, लाडनूं ७८. वही, ४/६६ १/२/५/१२५ ७९. वही, ४/६७ ९४. वही, १/२/३/७३, १/२/६/१८५ ८०. वही, ४/६८ ९६. देखें- Prakrit Proper Names Ed.- Pt. Dalsukha ८१. ध्यानशतक जिनभद्र क्षमाश्रमण प्रका०- विनय सुन्दर चरण Malvania, Pub.-L.D. Institute, Ahamadabad, 1972 ग्रन्थमाला, जामनगर, वि०सं० १९९७ ६३ Vol II Page 626. १२ तन्त्र-साधना और जैन जीवन दृष्टि 'तन्त्र' शब्द का अर्थ करते हैं, तब वह किसी प्रशासनिक व्यवस्था का सूचक होता है। जैन धर्म-दर्शन और साधना-पद्धति में तांत्रिक साधना के कौन- मात्र यही नहीं, अपितु आध्यात्मिक विशुद्धि और आत्म-विशुद्धि कौन से तत्त्व किस-किस रूप में उपस्थिति हैं, यह समझने के लिए के लिए जो विशिष्ट साधना-विधियाँ प्रस्तुत की जाती हैं, उन्हें 'तंत्र' कहा सर्वप्रथम तंत्र शब्द के अर्थ को समझना आवश्यक है। विद्वानों ने तंत्र शब्द जाता है। इस दृष्टि से 'तंत्र' शब्द एक व्यापक अर्थ का सूचक है और इस की व्याख्याएँ और परिभाषाएँ अनेक प्रकार से की हैं। उनमें से कुछ आधार पर प्रत्येक साधना-विधि 'तंत्र' कही जा सकती है। वस्तुत: जब हम परिभाषाएँ व्युत्पत्तिपरक हैं और कुछ रूढार्थक। व्युत्पत्ति की दृष्टि से तन्त्र शैवतंत्र, शाक्ततंत्र, वैष्णवतंत्र, जैनतंत्र या बौद्धतंत्र की बात करते हैं, तो शब्द 'तन्' + '' से बना है। 'तन्' धातु विस्तृत होने या व्यापक होने की यहाँ तंत्र का अभिप्राय आत्म विशुद्धि या चित्तविशुद्धि की एक विशिष्ट सूचक है और 'त्र' त्राण देने या संरक्षण करने का सूचक है। इस प्रकार जो पद्धति से ही होता है। मेरी जानकारी के अनुसार इस दृष्टि से जैन परम्परा आत्मा को व्यापकता प्रदान करता है और उसकी रक्षा करता है उसे तन्त्र में 'तन्त्र' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों-पञ्चाशक कहा जाता है। तान्त्रिक ग्रन्थों में 'तन्त्र' शब्द की निम्न व्याख्या उपलब्ध है- और ललितविस्तरा (आठवीं शती) में किया है। उन्होंने पञ्चाशक' में जिन तनोति विपुलानर्थान् तत्त्वमन्त्रसमन्वितान् । आगम को और ललितविस्तरारे में जैन धर्म के ही एक सम्प्रदाय को 'तंत्र' त्राणं च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते ।। के नाम से अभिहित किया है। इससे फलित होता है कि लगभग आठवीं अर्थात् जो तत्त्व और मन्त्र से समन्वित विभिन्न विषयों के विपुल शती से जैन परम्परा में 'तंत्र' अभिधान प्रचलित हुआ। यहाँ यह भी ज्ञातव्य ज्ञान को प्रदान करता है और उस ज्ञान के द्वारा स्वयं एवं दूसरों की रक्षा है कि प्रस्तुत प्रसंग में आगम को ही तंत्र कहा गया है। आगे चलकर करता है, उसे तंत्र कहा जाता है। वस्तुत: तंत्र एक व्यवस्था का सूचक है। आगम का वाचक तन्त्र शब्द किसी साधनाविधि दार्शनिकविधा का वाचक जब हम तंत्र शब्द का प्रयोग राजतंत्र, प्रजातंत्र, कुलीनतंत्र आदि के रूप में बन गया। वस्तुत: तंत्र एक दार्शनिक विधा भी है और साधनामार्ग भी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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