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________________ ४७६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ इसी पिण्डस्थ ध्यान की पाँचों धारणाओं के फल की चर्चा करते हैं, तो किया जाता है। इस ध्यान का साधक-योगी सर्वप्रथम हृदयकमल में स्पष्ट ऐसा लगता है कि वे तांत्रिक परम्परा से प्राभावित हैं, क्योंकि यहाँ स्थित कर्णिका में इस पद की स्थापना करता है तथा वचन-विलास की उन्होंने उन्हीं भौतिक उपलब्धियों की चर्चा की है जो प्रकारान्तर से उत्पत्ति के अद्वितीय कारण स्वर तथा व्यंजन से युक्त, पंचपरमेष्ठि के तांत्रिक साधना का उद्देश्य होती है। वाचक, मूर्धा में स्थित चंद्रकला से झरनेवाले अमृत के रस से सराबोर महामंत्र प्रणव (ॐ) श्वास को निश्चल करके कुम्भक द्वारा ध्यान करता (२) पदस्थ ध्यान है। इस ध्यान की विशेषता यह है कि स्तम्भन कार्य में पीत, वशीकरण जिस प्रकार पिण्डस्थ ध्यान में ध्येयभौतिक पिण्ड या शरीर में लाल, क्षोभन में मूंगे के रंग के समान, विद्वेषण में कृष्ण, कर्मनाश होता है उसी प्रकार पदस्थ ध्यान में ध्यान का आलम्बन पवित्र मंत्राक्षर, अवस्था में चंद्रमा की प्रभा के समान उज्जवल वर्ण का ध्यान किया बीजाक्षर या मातृकापद होते हैं। पदस्थ ध्यान का अर्थ है पदों अर्थात् स्वर जाता है। और व्यञ्जनों की विशिष्ट रचनाओं को अपने ध्यान का आलम्बन या हेमचन्द्र के अनुसार पंचपरमेष्ठि नामक ध्यान में प्रथम हृदय में ध्येय बनाना। इस ध्यान के अन्तर्गत मातृकापदों अर्थात् स्वर-व्यञ्जनों पर आठ पंखुड़ीवाले कमल की स्थापना करके कर्णिका के मध्य में सप्ताक्षर ही ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इस पदस्थ ध्यान में शरीर के तीन 'अरहंताणं' पद का चिन्तन किया जाता है। तत्पश्चात् चारों दिशाओं के केन्द्रों अर्थात् नाभिकमल, हृदयकमल तथा मुखकमल की कल्पना की चार पत्रों पर क्रमश: ‘णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं जाती है। इसमें नाभिकमल के रूप में सोलह पंखुड़ियों वाले कमल की तथा णमो लोए सव्वसाहूणं' का ध्यान किया जाता है तथा चार विदिशाओं कल्पना करके उसकी उन पंखुड़ियों पर सोलह स्वरों का स्थापन किया के पत्रों पर क्रमश: “एसो पंचणमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो, मंगलाणं च जाता है। हृदयकमल में कर्णिका सहित चौबीस पटल वाले कमल की सव्वेसिं, पढमं हवइ मगलं' का ध्यान किया जाता है। शुभचंद्र के कल्पना की जाती है और उसकी मध्यकर्णिका तथा चौबीस पटलों पर मतानुसार मध्य एवं पूर्वादि चार दिशाओं में तो णमो अरहंताणं आदि का क्रमशः क, ख, ग, घ आदि 'क' वर्ग से 'प' वर्ग तक के पच्चीस तथा चार विदिशाओं में क्रमश: 'सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः व्यञ्जनों की स्थापना करके उनका ध्यान किया जाता है। इसी प्रकार सम्यक् चारित्राय नमः तथा सम्यग्तपसे नम:' का चिंतन किया जाता है। अष्टपटलयुक्त मुखकमल की कल्पना करके उसके उन अष्ट पटलों पर इनके अतिरिक्त इन दोनों नमस्कारमंत्र से सम्बन्धित अनेक य, र, ल, व, श, ष, स, ह,- इन आठ वर्गों का ध्यान किया जाता ऐसे मन्त्रों या पदों का उल्लेख है जिनका ध्यान या जप करने से है। चूंकि सम्पूर्ण वाङ्मय इन्ही मातृकापदों से निर्मित है, अत: इन मनोव्याधियां शान्त होती हैं, कष्टों का परिहार होता है तथा कर्मों का मातृकापदों का ध्यान करने से व्यक्ति सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञाता हो जाता है आस्रव रुक जाता है। इनकी विस्तृत चर्चा हम तन्त्र साधना और जैन धर्म (योगशास्त्र ८/१-५)। नामक पुस्तक में कर चुके हैं। ज्ञानार्णव के अनुसार मंत्र व वर्णों (स्वर-व्यञ्जनों) के ध्यान में इस प्रकार पदस्थ ध्यान में चित्त को स्थित करने के लिए समस्त पदों का स्वामी 'अहं' माना गया है, जो रेफ कला एवं बिन्दु से मातृका पदों बीजाक्षरों एवं मंत्राक्षरों का आलम्बन किया जाता है। युक्त अनाहत मंत्रराज है। इस ध्यान के विषय में कहा गया है कि साधक जैनाचार्यों ने यह तो माना है कि इस पदस्थ ध्यान से विभिन्न को एक सुवर्णमय कमल की कल्पना करके उसके मध्य में कर्णिका पर लब्धियाँ या अलौकिक शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं, किन्तु वे साधक को विराजमान, निष्कलंक, निर्मल चंद्र की किरणों जैसे आकाश एवं संपूर्ण इनसे दूर रहने का ही निर्देश करते हैं, क्योंकि उनका लक्ष्य चित्त को दिशाओं में व्याप्त 'अहं' मंत्र का स्मरण करना चाहिए। तत्पश्चात् उसे शुद्ध और एकाग्र करना है, न कि भौतिक उपलब्धिाँ प्राप्त करना। मुखकमल में प्रवेश करते हुए, प्रवलयों में भ्रमण करते हुए, नेत्रपालकों (३) रूपस्थ ध्यान- इस ध्यान में साधक अपने मन को अहँ पर स्फुरित होते हुए, भाल मण्डल में स्थिर होते हुए, तालुरन्ध्र से बाहर पर केन्द्रित करता है अर्थात् उनके गुणों एवं आदर्शों का चिन्तन करता निकलते हुए, अमृत की वर्षा करते हुए, उज्ज्वल चंद्रमा के साथ स्पर्धा है। अर्हत के स्वरूप का आवलम्बन करके जो ध्यान किया जाता है वह करते हुए, ज्योतिर्मण्डल में भ्रमण करते हुए, आकाश में संचरण करते ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है। रूपस्थ ध्यान का साधक रागद्वेषादि हुए तथा मोक्ष के साथ मिलाप करते हुए कुम्भक के समान सम्पूर्ण विकारों से रहित समस्त गुणों, प्रतिहार्यों एवं अतिशयों से युक्त जिनेन्द्रदेव अवयवों में व्याप्त होने का चिन्तन करना चाहिए। का निर्मल चित्त से ध्यान करता है। वस्तुत: यह सगुण परमात्मा का इस प्रकार चित्त एवं शरीर में इसकी स्थापना द्वारा मन को ध्यान है। क्रमशः सूक्ष्मता के 'अर्ह मंत्र पर केंद्रित किया जाता है। अहँ के स्वरूप (४) रूपातीत ध्यान- रूपातीत ध्यान का अर्थ है रूप-रंग से में अपने को स्थिर करने पर साधक के अन्तरंग में एक ऐसी ज्योति अतीत निरंजन, निराकार, ज्ञान स्वरूप एवं आनन्दस्वरूप सिद्ध परमात्मा प्रकट होती है, जो अक्षय तथा अतीन्द्रिय होती है। इसी ज्योति का नाम का स्मरण करना। इस अवस्था में ध्याता ध्येय के साथ एकत्व की ही आत्मज्योति है तथा इसी से साधक को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। अनुभूति करता है। अत: इस अवस्था को समरसीभाव भी कहा गया है। प्रणव नामक ध्यान में अहँ के स्थान पर 'ॐ' पद का ध्यान इस तरह पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ तथा रूपातीत ध्यानों द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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