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________________ जैन साधना में ध्यान ४७५ किन्तु आगे चलकर इन आलम्बनों के संदर्भ में तंत्र का प्रभाव आया और इसके पश्चात् अपने हृदय भाग में अधोमुख आठ पंखुड़ियाँ वाले कमल लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शती के आलम्बन के आधार पर धर्मध्यान के का चिंतन करें और यह विचार करें कि ये आठ पखुड़ियाँ अनुक्रम से १. नवीन चार भेद किये गये ज्ञानावरण, २. दर्शनावरम, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयुष्य, ६. १. पिण्डस्थ २. पदस्थ नाम, ७, गोत्र और ८. अंतराय कर्मों की प्रतिनिधि हैं। इसके पश्चात् यह ३. रूपस्थ ४. रूपातीत चिंतन करे कि उस अहँ से जो अग्नि शिखायें निकल रही हैं, उनसे यह स्पष्ट है कि धर्मध्यान के इन आलम्बनों की चर्चा मूलतः अष्टदलकमल की अष्टकर्मों की प्रतिनिधि ये पखंड़ियाँ दग्ध हो रही हैं। कौलतन्त्रों से प्रभावित है, क्योंकि शुभचन्द्र (ग्यारहवीं शती) और अंत में यह चिंतन करे कि अहँ के ध्यान से उत्पन्न इन प्रबल अग्नि हेमचन्द्र (बारहवीं शती) के पूर्व हमें किसी भी जैन ग्रंथ में इनकी चर्चा शिखाओं ने अष्टकर्म रूपी उस अधोमुख कमल को दग्ध कर दिया है नहीं मिलती है। सर्वप्रथम शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णव में और हेमचन्द्र उसके बाद तीन कोण वाले स्वस्तिक तथा अग्निबीज रेफ से युक्त ने योगशास्त्रके अन्त में ध्यान के इन चारों आलम्बनों की चर्चा की है। वह्निपुर का चिंतन करना चाहिए और यह अनुभव करना चाहिए कि उस इनके पूर्व के किसी भी आचार्य ने इन चारों आलम्बनों की कोई चर्चा रेफ से निकली हुई ज्वालाओं ने अष्टकर्मों के साथ-साथ मेरे इस शरीर नहीं की है। मात्र यही नहीं, पिण्डस्थ- ध्यान के अन्तर्गत धारणाएँ हैं- को भी भस्मीभूत कर दिया है। इसके पश्चात् उस अग्नि के शांत होने की १. पार्थिवी, २. आग्नेयी, ३. मारुति, ४. वारुणी और ५. तत्त्ववती। धारणा करे। वस्तुत: ध्यान के इन चार आलम्बनों में और पञ्च धारणाओं में ध्यान का (ग) वायवीय धारणा- आग्नेयी धारणा के पश्चात् साधक विषय स्थूल से सूक्ष्म होता जाता है। आगे हम संक्षेप में इनकी चर्चा यह चिंतन करे कि समग्र लोक के पर्वतों को चलायमान कर देने में और करेंगे। ध्यान के इन चारों आलम्बनों या ध्येयों और पांचों धारणाओं को समुद्रों को भी क्षुब्ध कर देने में समर्थ प्रचण्ड पवन बह रहा है तथा मेरे जैनों ने कौलतंत्र से गृहीत करके अपने ढंग से किस प्रकार समायोजित देह और आठ कर्मों के भस्मीभूत होने से जो राख बनी थी, उसे वह किया है यह निम्न विवरण से स्पष्ट हो जायेगा। प्रचण्ड पवन वेग से उड़ाकर ले जा रहा है। अंत में यह चिंतन करना (१) पिण्डस्थ ध्यान- ध्यान-साधना के लिए प्रारम्भ में कोई चहिए कि उस राख को उड़ाकर यह पवन भी शांत हो रहा है। न कोई आलम्बन लेना आवश्यक होता है। साथ ही इसके क्षेत्र में प्रगति (घ) वारुणीय धारणा- वायवीय धारणा के पश्चात् साधक के लिए यह भी आवश्यक होता है कि इन आलम्बनों का विषय क्रमशः यह चिंतन करे कि अर्धचन्द्राकार कलाबिन्दु से युक्त वरुण बीज 'वं' से स्थूल से सूक्ष्म होता जाये। पिण्डस्थ ध्यान में आलम्बन का विषय सबसे उत्पन्न अमृत के समान जल से युक्त मेघमालाओं से आकाश व्याप्त है स्थूल होता है। पिण्ड शब्द के दो अर्थ हैं- शरीर अथवा भौतिक वस्तु। और इन मेघमालाओं से जो जल बरस रहा है, उसने शरीर और कर्मों पिण्ड शब्द का अर्थ शरीर लेने पर पिण्डस्थ ध्यान का अर्थ होगा- की जो भस्मी उड़ी थी उसे भी धो दिया है। आन्तरिक शारीरिक गतिविधियों पर ध्यान केन्द्रित करना, जिसे हम (ङ) तत्त्ववती धारणा- उपर्युक्त चारों धारणाओं के द्वारा शरीरप्रेक्षा भी कह सकते हैं, किन्तु पिण्ड का अर्थ भौतिक तत्त्व करने पर सप्तधातुओं से बने शरीर और अष्टकर्मों के समाप्त हो जाने पर साधक पार्थिवी आदि धारणायें भी पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत ही आ जाती हैं। पूर्णचन्द्र के समान निर्मल एवं उज्जवल कांति वाले विशुद्ध आत्मतत्त्व ये धारणायें निम्न हैं का चिंतन करे और यह अनुभव करे कि उस सिंहासन पर आसीन मेरी (क) पार्थिवीधारणा- आचार्य हेमचंद्र के योगशास्त्र के अनुसार शुद्ध-बुद्ध-आत्मा अरहंत स्वरूप है। पार्थिवीधारणा में साधक को मध्यलोक के समान एक अतिविस्तृत इस प्रकार की ध्यान-साधना के फल की चर्चा करते हुए क्षीरसागर का चिंतन करना चाहिए। फिर यह विचार करना चाहिए कि आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि पिण्डस्थ ध्यान के रूप में इन पाँचों उस क्षीरसागर के मध्य में जम्बूद्वीप के समान एक लाख योजन विस्तार धारणाओं का अभ्यास करने वाले साधक का उच्चाटन, मारण, मोहन, वाला और एक हजार पंखुड़ियों वाला एक कमल है। उस कमल के मध्य स्तम्भन आदि सम्बन्धी दुष्ट विद्यायें और मांत्रिक शक्तियाँ कुछ भी नहीं में देदीप्यमान स्वर्णिम आभा से युक्त मेरु पर्वत के समान एक लाख बिगाड़ सकती हैं। डाकिनी-शाकिनियाँ, क्षुद्र योगिनियाँ, भूत, प्रेत, योजन ऊँची कर्णिका है, उस कर्णिका के ऊपर एक उज्जवल श्वेत पिशाचादि दुष्ट प्राणी उसके तेज को सहन करने में समर्थ नहीं हैं। उसके सिंहसान है, उस सिंहासन पर आसीन होकर मेरी आत्मा अष्टकर्मों का तेज से वे त्रास को प्राप्त होते हैं। सिंह, सर्प आदि हिंसक जन्तु भी समूल उच्छेदन कर रही है। स्तम्भित होकर उससे दूर ही रहते हैं। (ख) आग्नेयीधारणा- ज्ञानार्णव और योगशास्त्र में इस धारणा यहाँ यह ज्ञातव्य है कि हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में (७/८के विषय में कहा गया है कि साधक अपने नाभिमण्डल में सोलह २८) तान्त्रिक परम्परा की इन पाँचों धारणाओं को स्वीकार करके भी पंखुड़ियों वाले कमल का चिंतन करे। फिर उस कमल की कर्णिका पर उन्हें जैन धर्म-दर्शन की आत्मविशुद्धि की अवधारणा से योजित किया अहं की, और प्रत्येक पंखुड़ी पर क्रमश: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ ऋ ऋ, है। क्योंकि इन धारणाओं के माध्यम से वे अष्टकर्मों के नाश के द्वारा लू, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:- इन सोलह स्वरों की स्थापना करें। शुद्ध आत्मदशा में अवस्थित होने का ही निर्देश करते हैं, किन्तु जब वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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