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________________ ४५६ हुआ पत्थर अप्रयास ही स्वाभविक रूप से गोल हो जाता है उसी प्रकार संसार में भटकते हुए प्राणी को अनायास ही जब कर्मावरण के अल्प होने पर यथार्थता का बोध हो जाता है तो ऐसा सत्यबोध निसर्गज (प्राकृतिक) होता हैं। बिना किसी गुरु आदि के उपदेश के स्वाभाविक रूप में स्वतः उत्पन्न होने वाला ऐसा सत्य बोध निसर्गज सम्यक्त्व कहलाता है। जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ २. अधिगमज सम्यक्त्व - गुरु आदि के उपदेशरूप निमित्त से होने वाला सत्यबोध या सम्यक्त्व अधिगमज सम्यक्त्व कहलाता है। इस प्रकार जैन दार्शनिक न तो वेदान्त और मीमांसा दर्शन के अनुसार सत्य के नित्य प्रकटन को स्वीकार करते हैं और न न्याय-वैशेषिक और योगदर्शन के समान यह मानते हैं कि सत्य का प्रकटन ईश्वर के द्वारा होता है वरन् वे तो यह मानते हैं कि जीवात्मा में सत्यबोध को प्राप्त करने की स्वाभाविक शक्ति है और वह बिना किसी दूसरे की सहायता के सत्य का बोध प्राप्त कर सकता है यद्यपि किन्ही विशिष्ट आत्माओं (तीर्थकर ) द्वारा सत्य का प्रकटन एवं उपदेश भी किया जाता है । ५७ सम्यक्त्व के पाँच अंग सम्यक्त्व यथार्थता है, सत्य है; इस सत्य की साधना के लिए जैन विचारकों ने पाँच अंगों का विधान किया है। जब तक साधक इन्हें नहीं अपना लेता है वह यथार्थता या सत्य की आराधना एवं उपलब्धि में समर्थ नहीं हो पाता। सम्यक्त्व के निम्न पाँच अंग हैं : Jain Education International के तीव्रतम आकांक्षा क्योंकि जिसमें सत्याभीप्सा होगी वही सत्य को पा सकेगा, सत्याभीप्सा से ही अज्ञान से ज्ञान की ओर प्रगति होती है। यही कारण है कि उत्तराध्ययनसूत्र में संवेग का प्रतिफल बताते हुए महावीर कहते हैं कि संवेग से मिथ्यात्व की विशुद्धि होकर यथार्थ दर्शन की उपलब्धि (आराधना) होती है । ५८ ३. निर्वेद - इस शब्द का अर्थ होता है उदासीनता, वैराग्य, अनासक्ति । सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीन भाव रखना, क्योंकि इसके अभाव में साधना मार्ग पर चलना सम्भव नहीं होता । वस्तुतः निर्वेद निष्काम भावना या अनासक्त दृष्टि के उदय का आवश्यक अंग है। ४. अनुकम्पा इस शब्द का शब्दिक निर्वचन इस प्रकार हैअनुकम्पा अनु का अर्थ है तदनुसार, कम्प का अर्थ है धूजना या कम्पित होना अर्थात् किसी अन्य के अनुसार कम्पित होना। दूसरे शब्दों में कहें तो अन्य व्यक्ति के दुःखित या पीड़ित होने पर तदनुकूल अनुभूति हमारे अन्दर उत्पन्न होना ही अनुकम्पा है। दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना यही अनुकम्पा का अर्थ है परोपकार के नैतिक सिद्धान्त का आधार यही अनुकम्पा है। इसे सहानुभूति भी कहा जा सकता है। ५. आस्तिक्य आस्तिक्य शब्द आस्तिकता का द्योतक है। जिसके मूल में अस्ति शब्द है, जो सत्ता का वाचक है। आस्तिक किसे कहा जाए इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया गया है। कुछ ने कहाजो ईश्वर के अस्तित्व या सत्ता में विश्वास करता है, वह आस्तिक है। दूसरों ने कहा- जो वेदों में आस्था रखता है, वह आस्तिक है। लेकि जैन विचारणा में आस्तिक और नास्तिक के विभेद का आधार इससे मित्र है। जैन दर्शन के अनुसार जो पुण्य पाप, पुनर्जन्म, कर्म सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह आस्तिक है। जैन विचारकों की दृष्टि में यथार्थता या सम्यक्त्व के निम्न पाँच दूषण (अतिचार) माने गये हैं जो सत्य या यथार्थता को अपने विशुद्ध स्वरूप में जानने अथवा अनुभूत करने में बाधक होते हैं। अतिचार वह दोष है जिससे व्रत भंग तो नहीं होता लेकिन उसकी सम्यक्त्व प्रभावित होता है। सम्यक् दृष्टिकोण की यथार्थता को प्रभावित करने वाले ३ दोष है १. चल, २. मल, और ३. अगाढ़ चल दोष से तात्पर्य यह है कि यद्यपि व्यक्ति अन्तःकरणपूर्वक तो यथार्थ दृष्टिकोण के प्रति दृढ़ रहता है लेकिन कभी-कभी क्षणिक रूप में बाह्य आवेगों से प्रभावित हो जाता है। मल वे दोष है जो यथार्थ दृष्टिकोण की निर्मलता को प्रभावित करते हैं। मल निम्न पाँच है १. सम- सम्यक्त्व का पहला लक्षण है सम । प्राकृत भाषा का यह 'सम' शब्द संस्कृत भाषा में तीन रूप लेता है- १. सम, २. शम, ३. श्रम इन तीनों शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं। पहले 'सम' शब्द के ही दो अर्थ होते हैं। पहले अर्थ में यह सहानुभूति या तुल्यता है अर्थात् सभी प्राणियों को अपने समान समझना है। इस अर्थ में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के महान् सिद्धान्त की स्थापना करता है जो अहिंसा की विचार-प्रणाली का आधार है। दूसरे अर्थ में इसे सम मनोवृत्ति या समभाव कहा जा सकता है अर्थात् सुख-दुःख, हानि-लाभ एवं अनुकूल और प्रतिकूल दोनों स्थितियों में समभाव रखना, चित्त को विचलित नहीं होने देना। यह चित्तवृत्ति संतुलन है संस्कृत के 'राम' रूप के आधार पर इसका अर्थ होता है शांत करना अर्थात् कषायाग्नि या वासनाओं को शांत करना। संस्कृत के तीसरे रूप 'श्रम' के आधार पर इसका निर्वाचन होता है प्रयास, प्रयत्न या पुरुषार्थ करना। १. शंका वीतराग या अर्हत् के कथनों पर शंका करना, २. संवेग संवेग शब्द का शाब्दिक विश्लेषण करने पर उसका निम्न अर्थ ध्वनित होता है-सम+वेग, सम्यक्त् उचित, वेग- गति अर्थात् सम्यक्गति । सम् शब्द आत्मा के अर्थ में भी आ सकता है। इस उनकी यथार्थता के प्रति संदेहात्मक दृष्टिकोण रखना। प्रकार इसका अर्थ होगा आत्मा की ओर गति दूसरे, सामान्य अर्थ में संवेग शब्द अनुभूति के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है यहाँ इसका तात्पर्य होगा स्वानुभूति, आत्मानुभूति अथवा आत्मा के आनन्दमय स्वरूप की अनुभूति। तीसरे, आकांक्षा की तीव्रतम अवस्था को भी संवेग कहा जाता है। इस प्रसंग में इसका अर्थ होगा सत्याभीप्सा अर्थात् सत्य को जानने प्रति संशय करना कि मेरे इस सदाचरण का प्रतिफल मिलेगा या नहीं। - २. आकांक्षा - स्वधर्म को छोड़कर पर धर्म की इच्छा करना, आकांक्षा करना अथवा नैतिक एवं धार्मिक आचरण के फल की आकांक्षा करना। फलासक्ति भी साधना मार्ग में बाधक तत्त्व मानी गयी है। ३. विचिकित्सा नैतिक अथवा धार्मिक आचरण के फल के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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