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________________ जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन ४५५ उत्पन्न कर देता है और उसके परिणामस्वरूप होने वाले यथार्थबोध का औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भूमिका में सम्यक्त्व कारण बनता है, दीपक सम्यक्त्व कहलाती है। दीपक सम्यक्त्व वाला के रस का पान करने के पश्चात् जब साधक पुन: मिथ्यात्व की ओर व्यक्ति वह है जो दूसरों को सन्मार्ग पर लगा देने का कारण तो बन जाता लौटता है तो लौटने की इस क्षणिक समयावधि में वान्त सम्यक्त्व का है लेकिन स्वयं कुमार्ग का ही पथिक बना रहता है। जैसे कोई नदी के किंचित् संस्कार अवशिष्ट रहता हैं जैसे वमन करते समय वमित पदार्थों तीर पर खड़ा हुआ व्यक्ति किसी नदी के मध्य में थके हुए तैराक का का कुछ स्वाद आता है वेसे ही सम्यक्त्व को वान्त करते समय सम्यक्त्व उत्साहवर्धन कर उसके पार लगने का कारण बन जाता है यद्यपि न तो का भी कुछ आस्वाद रहता है। जीव की ऐसी स्थिति सास्वादन सम्यक्त्व स्वयं तैरना जानता है और न पार ही होता है। कहलाती है। सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण एक अन्य प्रकार से भी साथ ही जब जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भूमिका से किया गया है- जिसमें कर्मप्रकृतियों के क्षयोपशम के आधार पर क्षायिक सम्यक्त्व की प्रशस्त भूमिका पर आगे बढ़ता है और इस विकास उसके भेद किये हैं। जैन विचारणा में अनन्तानुबंधी (तीव्रतम) क्रोध, क्रम में जब वह सम्यक्त्वमोहनीय कर्मप्रकृति के कर्मदलिकों का अनुभव मान, माया (कप), लोभ तथा मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह कर रहा होता है तो उसके सम्यक्त्व की यह अवस्था 'वेदक सम्यक्त्व' ये सात कर्म-प्रकृतियाँ सम्यक्त्व (यथार्थबोध) की विरोधी मानी गयी कहलाती है। वेदक सम्यक्त्व के अनन्तर जीव क्षायिक सम्यक्त्व को है, इसमें सम्यक्त्वमोहनीय को छोड़ शेष छह कर्म-प्रकृतियाँ उदय प्राप्त कर लेता है। होती हैं तो सम्यक्त्व का प्रकटन नहीं हो पाता। सम्यक्त्वमोह मात्र वस्तुतः सास्वादन सम्यक्त्व और वेदक सम्यक्त्व सम्यक्त्व सम्यक्त्व की निर्मलता और विशुद्धि में बाधक होता हैं कर्मप्रकृतियों की मध्यान्तर अवस्थायें है। पहली सम्यक्त्व से मिथ्यातव की ओर गिरते की तीन स्थितियाँ हैं समय और दूसरी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व की ओर १. क्षय, २. उपशम, और ३. क्षयोपशम। बढ़ते समय होती है। इसी आधार पर सम्यक्त्व का यह वर्गीकरण किया गया है जिसमें सम्यक्त्व तीन प्रकार का होता है सम्यक्त्व का विविध वर्गीकरण १. औपशमिक सम्यक्त्व २. क्षायिक सम्यक्त्व, और सम्यक्त्व का विश्लेषण अनेक अपेक्षाओं से किया गया है ३. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ताकि उसके विविध पहलुओं पर समुचित प्रकाश डाला जा सके। सम्यक्त्व का विविध वर्गीकरण चार प्रकार से किया गया हैऔपशमिक सम्यक्त्व द्रव्य सम्यक्त्व और भाव सम्यक्त्व उपरोक्त (क्रियामाण) कर्मप्रकृतियों के उपशमित (दबाई हुई) १. द्रव्य सम्यक्त्व- विशुद्ध रूप से परिणत किये हुए मिथ्यात्व हो जाने से जिस समक्त्व गुण का प्रकटन होता है वह औपशमिक के कर्मपरमाणु द्रव्य सम्यक्त्व कहलाते हैं। सम्यक्त्व कहलाता है। औपशमिक सम्यक्त्व में स्थायित्व का अभाव २. भाव सम्यक्त्व- उपरोक्त विशुद्ध पुद्गल वर्गणा के निमित्त होता है। शास्त्रीय विवेचना के अनुसार यह एक अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनिट) से होने वाली तत्त्वश्रद्धा भाव सम्यक्त्व कहलाती है। से अधिक नहीं टिक पाता है। उपशमित कर्मप्रकृतियाँ (वासनाएँ) पुनः (ब) निश्चय सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यक्त्व जाग्रत होकर इसे विनष्ट कर देती हैं। १. निश्चय सम्यक्त्व- राग-द्वेष और मोह का अत्यल्प हो जाना, पर-पदार्थों से भेदज्ञान एवं स्व-स्वरूप में रमण, देह में रहते हुए क्षायिक सम्यक्त्व देहाध्यास का छूट जाना, यह निश्चय सम्यक्त्व के लक्षण हैं। मेरा शुद्ध उपरोक्त सातों कर्मप्रकृतियों के क्षय हो जाने पर जिस सम्यक्त्व स्वरूप अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तआनन्दमय है। पर-भाव या रूप यथार्थबोध का प्रकटन होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है। आसक्ति ही मेरे बन्धन का कारण, और स्व-स्वभाव में रमण करना ही यह यथार्थबोध स्थायी होता है और एक बार प्रकट होने पर कभी भी मोक्ष का हेतु है। मैं स्वयं ही अपना आदर्श हूँ, देव-गुरु और धर्म यह विनष्ट नहीं होता है। शास्त्रीय भाषा में यह सादि एवं अनन्त होता है। मेरी आत्मा ही है। ऐसी दृढ़ श्रद्धा का होना ही निश्चय सम्यक्त्व है। दूसरे शब्दों में आत्मकेन्द्रित होना यही निश्चय सम्यक्त्व है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व २. व्यवहार सम्यक्त्व- वीतराग में देवबुद्धि (आदर्श बुद्धि), मिथ्यात्वजनक उदयगत (क्रियमाण) कर्मप्रकृतियों के क्षय हो जाने पाँच महाव्रतों के पालन करने वाले मुनियों में गुरुबुद्धि और जिनप्रणीत पर और अनुदित (सत्तावान या संचित) कर्मप्रकृतियों के उपशम हो जाने पर धर्म में सिद्धान्तबुद्धि रखना, यह व्यवहार सम्यक्त्व है। जिस सम्यक्त्व का प्रगटन होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। यद्यपि सामान्य दृष्टि से यह अस्थायी ही है फिर भी एक लम्बी समयावधि (स) निसर्गज सम्यक्त्व और अधिगमज सम्यक्त्व५६ (छयासठ सागरोपम से कुछ अधिक) तक अवस्थित रह सकता है। १. निसर्गज सम्यक्त्व-जिस प्रकार नदी के प्रवाह में पड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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