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________________ जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा ४३९ आरूग्गबोहिलाभं समाहिमरणं च पावंति । अवस्था में है राग-द्वेष का अतिक्रमण कर लेना सम्भव नहीं है। ऐसी अर्थात् जिन की भक्ति से पूर्व संचित कर्म क्षीण होते हैं और स्थिति में यह माना गया है कि जब तक व्यक्ति स्वयं सत्य का साक्षात्कार आचार्य से नमस्कार के विद्या और मंत्र सिद्ध होते हैं। पुन: जिनेन्द्र न कर लें, उसे वीतराग परमात्मा, जिन्होंने स्वयं सत्य का साक्षात्कार की भक्ति से राग-द्वेष समाप्त होकर आरोग्य, बोधि और समाधि लाभ किया है, उनके कथनों पर विश्वास करना चाहिए। जैन साहित्य में होता है। सम्यक्-दर्शन के जिन पाँच अंगों की चर्चा मिलती है, उनमें श्रद्धा भारतीय परम्परा में नवधा भक्ति का उल्लेख मिलता है- भी एक है। लगभग उत्तराध्ययन (ई०पू० ३री-२री शती) के काल श्रवणं कीर्तनं स्मरणं पादसेवनम्। तक जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ स्वीकार हो चुका अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्। था। किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि उत्तराध्ययन एवं १. श्रवण, २. कीर्तन, ३. स्मरण, ४. पादसेवन, ५. अर्चन, तत्त्वार्थसूत्र (ई० सन् ३री शती) के काल तक जैन धर्म में श्रद्धा तत्त्वश्रद्धा ६. वंदन, ७. दास्य, ८. सख्य और ९. आत्मनिवेदन। थी। वह जिन या परमात्मा के प्रति श्रद्धा के रूप में सुस्थापित नहीं भक्ति के इन नव तत्त्वों में कौन किस रूप में जैन परम्परा में हुई थी। प्राचीन स्तर के ग्रन्थों में श्रद्धा को तत्त्व श्रद्धा या सिद्धान्त मान्य रहा है, इसका संक्षिप्त विवरण अपेक्षित है। इनमें से श्रवण के प्रति निष्ठा के रूप में ही देखा गया। किन्तु जब श्रद्धा के क्षेत्र शास्त्र-श्रवण या जिनवाणी-श्रवण के रूप में जैन परम्परा में सदैव ही में तत्त्व या सिद्धान्त के स्थान पर व्यक्ति को प्रमुखता दी गयी, तो मान्य रहा है। उसमें कहा गया है कि व्यक्ति को कल्याण-मार्ग और जिन और जिनवचन के प्रति श्रद्धा ही सम्यक् दर्शन का प्रतीक मानी पाप-मार्ग का बोध श्रवण से ही होता है, दोनों को सुनकर ही जाना गयी। आगे चलकर जिनवचन के प्रस्तोता गुरु के प्रति भी श्रद्धा को जाता है।११ जहाँ तक कीर्तन एवं स्मरण का प्रश्न है, इन दोनों का स्थान मिला। इस प्रकार श्रद्धा का अर्थ हुआ-देव, गुरु एवं धर्म के अन्तर्भाव जैन परम्परा के 'स्तवन' में होता है। इसे षडावश्यकों अर्थात् प्रति श्रद्धा। श्रमण एवं श्रावक के कर्त्तव्यों में दूसरा स्थान प्राप्त है। पादसेवन और जैन साधना के क्षेत्र में सामान्यतया दर्शन (श्रद्धा) को प्राथमिकता वंदन को भी जैन परम्परा के तृतीय आवश्यक कर्त्तव्य के रूप में वंदन दी गई है। कहा गया है धर्म दर्शन (श्रद्धा) मूलक है। जब तक में अन्तर्निहित माना जा सकता है। अर्चन को जैन परम्परा में जिन- दर्शन शब्द अनुभूति या दृष्टिकोण का सूचक रहा तब तक दर्शन को पूजा के रूप में स्वीकृत किया गया है। जैन परम्परा में मुनि के लिये ज्ञान की अपेक्षा प्रधानता मिली, किन्तु जब दर्शन का अर्थ तत्त्व श्रद्धा भाव-पूजा और गृहस्थ के लिये द्रव्य-पूजा का विधान है। जिस प्रकार मान लिया गया तो उसका स्थान ज्ञान के बाद निर्धारित हुआ। वैष्णव परम्परा में पंचोपचार-पूजा और षोडशोपचार-पूजा का विधान उत्तराध्ययनसूत्र१२ में जहाँ दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ किया गया है वहाँ है उसी प्रकार जैन परम्परा में अष्टप्रकारी पूजा और सतरहभेदी पूजा स्पष्ट रूप से कहा है कि ज्ञान से तत्त्व के स्वरूप को जानें और दर्शन का विधान है। के द्वारा उस पर श्रद्धा करें। यह सत्य है कि ज्ञान के अभाव में जो यद्यपि दास, सख्य एवं आत्मनिवेदन रूप भक्ति की विधाओं श्रद्धा होगी उसमें संशय की सम्भावना होगी, अत: ऐसी श्रद्धा अंध-श्रद्धा का स्पष्ट प्रतिपादन तो प्राचीन जैन आगमों में नहीं मिलता है किन्तु होगी। यह सत्य है कि जैनों ने श्रद्धा को अपनी साधना में स्थान जिनाज्ञा के परिपालन, आत्मालोचन तथा वात्सल्य के रूप में इनके दिया किन्तु वे इस सन्दर्भ में सर्तक रहे कि श्रद्धा को ज्ञानाधिष्ठित मूल तत्त्व जैन परम्परा में उपलब्ध हैं। भक्ति के इन अंगों की विस्तृत होना चाहिए। श्रद्धा, प्रज्ञा और तर्क से समीक्षित होकर ही सम्यक् चर्चा अग्रिम पंक्तियों में की गई है। श्रद्धा बन सकती है। १३ इस प्रकार जैन चिन्तन में भक्ति के मूल आधार श्रद्धा के तत्त्व को स्थान तो मिला, किन्तु उसे अनुभूति या ज्ञान से जैन धर्म में श्रद्धा समन्वित किया गया, ताकि श्रद्धा अन्ध-श्रद्धा न बन सके। जैन धर्म जैन परम्परा में श्रद्धा के लिए सामान्यतया सम्यक् दर्शन शब्द में श्रद्धा मूलत: तत्त्व-श्रद्धा या सिद्धान्त के प्रति आस्था रही। उसमें प्रचलित है। इसका मूल अर्थ तो देखना या अनुभूति ही है, किन्तु जो वैयक्तिकता का तत्त्व प्रविष्ट हुआ और वह देव तथा गुरु के प्रति आगे चलकर जैन परम्परा में दर्शन शब्द श्रद्धा के अर्थ में रूढ़ हो श्रद्धा बनी है, उसके मूल में रहे हुए हिन्दू परम्परा के प्रभाव को विस्मृत गया। जैन ग्रन्थों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि दर्शन शब्द नहीं किया जा सकता है। हिन्दु परम्परा में जो ईश्वर के प्रति अथवा का श्रद्धापरक अर्थ एक परवर्ती विकास है और उसके प्रकारों के वर्गीकरण उसके वचन के रूप में वेदादि के प्रति जो आस्था की बात कही गई के परिणाम स्वरूप अस्तित्व में आया है। जैन धर्म में सम्यक् दर्शन थी, उसे जैन आचार्यों ने जिनवाणी के प्रति श्रद्धा के रूप में ग्रहीत के मुख्यत: दो प्रकार माने गये हैं-निसर्गत: और अधिमगज। सम्यक् करके अपनी परम्परा में स्थान दिया। फिर भी यह स्मरण रखना होगा दर्शन का एक रूप वह होता है, जहाँ साधक अपनी अनुभूति से सत्य भक्ति की अवधारणा का विकास जिस रूप में हिन्दू धर्म में हुआ, का साक्षात्कार करता है। ‘सत्य का साक्षात्कार' ही सम्यक् दर्शन का। उस रूप में जैन धर्म में नहीं हुआ है। जैनाचार्यों ने अपनी तात्त्विक मूल अर्थ है, किन्तु यह तब तक सम्भव नहीं है जब तक व्यक्ति अपने मान्यताओं के आधार पर ही अपनी परम्परा में भक्ति के स्वरूप को को राग-द्वेष के पंजों से मुक्त नहीं कर लेता। जब तक व्यक्ति साधक निर्धारित किया है। उन्होंने अपनी सहवती हिन्दू परम्परा से बहुत कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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