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________________ ४३८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ स्तुति के रूप में उसमें भक्ति के तत्त्व तो हैं ही। आगे चलकर दृष्टि से जैन परम्परा में भक्ति की अवधारणा मौर्यकाल में पल्लवित औपनिषदिक काल और विशेष रूप से गीता के रचनाकाल में तो एवं विकसित हुई है। पुन: इस दिशा में जो भी साक्ष्य उपलब्ध हैं हमें भक्ति की एक सुस्थापित परम्परा उपलब्ध होती है। गीता में जिन वे सब इसी तथ्य को संपोषित करते हैं कि जैन धर्म में भक्ति का योगों (साधना-विधियों) की चर्चा मिलती है, उसमें भक्तियोग सबसे विकास अपनी सहवर्ती हिन्दू परम्परा से प्रभावित होता रहा है। हिन्दू महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि गीता की ज्ञानयोगपरक एवं कर्मयोगपरक परम्परा में भक्ति के विविध रूपों का जिस प्रकार क्रमिक विकास हुआ व्याख्याएँ भी की गयीं, किन्तु यदि हम गीता की अन्तरात्मा में झांककर है उसी प्रकार जैन परम्परा में भी भक्ति का क्रमिक विकास हुआ है। देखें तो लगता है कि उसमें भक्ति या समर्पण भाव ही केन्द्रिय तत्त्व फिर भी जैन और हिन्दू धर्म की मूलभूत दार्शनिक अवधारणाओं में है। कर्म की निष्कामता का आधार भी कर्म-फल की आकांक्षा का जो अन्तर है उसके आधार पर दोनों की भक्तियों की अवधारणा में प्रभु के प्रति समर्पण ही है। यह बात अलग है कि गीता ज्ञान एवं और उसके लक्ष्य में भी अन्तर है। यह स्पष्ट है कि जहाँ हिन्दू धर्म कर्म को भी समान रूप से महत्त्व देती है, किन्तु उसमें इन्हें भी भक्ति ईश्वरवादी है वहीं जैन धर्म निरीश्वरवादी है। उसमें सृष्टि के निर्माता के कारण व कार्य के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। परमात्मा और पालनकर्ता तथा संहारक ईश्वर की अवधारणा पूर्णत: अनुपस्थित के स्वरूप का ज्ञान, जो कि गीता के ज्ञानयोग का प्रतिपाद्य है, है। दूसरा अन्तर यह है कि जहाँ हिन्दू धर्म का ईश्वर कृपा के माध्यम अन्ततोगत्वा प्रभु के प्रति अनन्य निष्ठा में परिणित होता है। दूसरी से अपने भक्तों के कल्याण की सामर्थ्य रखता है वहाँ जैन धर्म के ओर गीता यह कहती है कि श्रद्धावान ही प्रभु के ज्ञान को प्राप्त होता सिद्ध परमात्मा निष्क्रिय हैं। वे न तो अपने भक्तों का कल्याण कर है। पुन: गीता का कर्मयोग भी वस्तुत: परमात्मा के प्रति न केवल सकते हैं और न दुष्टों का दमन। जैन धर्म में भक्ति का तत्त्व उपस्थित कर्मफल या पूर्ण समर्पण है अपितु समर्पित भाव से उसके आदेशों तो है, किन्तु वह हिन्दू परम्परा में उपलब्ध भक्ति की अवधारणा से का परिपालन भी है। गीता लोकसेवा को भी प्रभु की सेवा में अफ़्रभावित किंचित भिन्न है, आगे हम इस सन्दर्भ में विस्तार से विचार करेंगे। कर कर्मयोग को भक्तियोग बना देती है। गीता में ज्ञान वह है जिससे सामान्यतया जैन भक्ति परम्परा में श्रद्धा, सर्मपण, गुण-संकीर्तिन या भक्ति की धारा प्रसूत होती है और कर्म उस भक्ति की व्यापक भजन, पूजा और अर्चा या सेवा के तत्त्व उपस्थित रहे हैं। श्रद्धा उसका बाह्याभिव्यक्ति है। यही कारण है कि रामानुज, वल्लभ आदि भक्तिमार्गी प्रस्थान-बिन्दु है और सेवा अन्तिम चरण है। श्रद्धा एवं सर्मपण-भाव आचार्यों ने गीता की भक्तिपरक व्याख्या प्रस्तुत की। अतः हम यह उसके मानसिक रूप हैं और सेवा उसकी कायिक अभिव्यक्ति। अब कह सकते हैं कि भारत में प्रारम्भिक काल से लेकर सूर व तुलसी हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि जैन धर्म में इन तत्त्वों का विकास के माध्यम से आधुनिक काल तक भक्ति की एक अजस्र धारा प्रवाहित कैसे हुआ ? होती रही है और जैन परम्परा भी इससे प्रभावित होती रही है। जैनधर्म में भक्ति की अवधारणा कैसे व किस रूप में आयी यह विचार करना भी आवश्यक है। जहाँ तक मेरी जानकारी है आगमों जैन धर्म में भक्ति में सत्थारभक्ति५ 'भत्तिचित्ताओ' (ज्ञाताधर्म) शब्द मिलते हैं। सर्वप्रथम जैन दर्शन में भक्ति की अवधारणा के विकास को समझने के ज्ञाताधर्म में तीर्थकर पद की प्राप्ति में सहायक जिन २० कारणों की लिए भक्ति के भारतीय परिप्रेक्ष्य को समझना आवश्यक है, क्योंकि चर्चा है उनमें श्रुतभक्ति (सुयभत्ति) का स्पष्ट उल्लेख है। इसके साथ जैन धर्म में भक्ति का जो विकास हुआ वह इन समसामयिक परिस्थितियों ही उसमें अरहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, तपस्वी आदि के प्रति से अप्रभावित नहीं रहा है। जैन धर्म की भक्ति-साधना में अन्य परम्पराओं वत्सलता का उल्लेख हुआ है, जो भक्ति का ही एक रूप है। तत्त्वार्थसूत्र से आये तत्त्व आज इस तरह आत्मसात् हो गये हैं कि उन्हें अलग में अर्हत् आचार्य, बहुश्रुत एवं प्रवचन (शास्त्र) की भक्ति को तीर्थकरत्व कर पाना भी कठिन है। प्राप्त करने के १६ कारणों में परिगणित किया गया है। जैन धर्म में साहित्यिक साक्ष्य के रूप में जो प्राचीनतम सन्दर्भ इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञाताधर्मकथा और आवश्यकनियुक्ति उपलब्ध हैं, वे आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन जहाँ अर्हत्, सिद्ध, आचार्य आदि के प्रति वत्सलता अर्थात् अनुराग पर आधारित हैं। इनमें आचारांग एवं सूत्रकृतांग में भक्ति तत्त्व अनुपस्थित की बात करते हैं, वहाँ तत्त्वार्थसूत्र स्पष्ट रूप से इनकी भक्ति की बात है। आचारांगसूत्र मात्र यह बताता है कि मेरी आज्ञा का पालन धर्म कहता है, किन्तु भक्ति और वात्सल्य में अर्थ की दृष्टि से अन्तर नहीं है (१/६/२/४८)। ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन में यद्यपि श्रद्धा को माना जा सकता है। आगे चलकर तो वात्सल्य को भक्ति का एक स्थान मिला है, किन्तु वह श्रद्धा मात्र तत्त्वश्रद्धा है। जैन धर्म में अंग ही मान लिया गया है। ज्ञातव्य है कि भक्ति या वात्सल्य दोनों सम्यग्दर्शन, जो भक्ति का आधार है, प्रारम्भ में मात्र तत्त्वश्रद्धा ही रहा का अर्थ श्रद्धायुक्त सेवा भाव ही है। आवश्यकनियुक्ति में सर्वप्रथम है। देव, गुरु एवं धर्म के प्रति श्रद्धा यह उसका परवर्ती अर्थ विकास भक्ति के फल की चर्चा हुई है। उसमें कहा गया है किहै। पुरातात्त्विक साक्ष्यों में तो हमें मौर्यकाल से ही जैन परम्परा में भत्तीइ जिणवराणं खिज्जंती पुव्वसंचिया कम्मा मूर्ति-पूजा के प्रमाण मिलने लगते हैं। मथुरा में तो मूर्ति-पूजा के परिदृश्य आयरिअनमुक्कारेण विज्जा मंता य सिज्झंति भी अंकित हैं। अत: यह मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं है कि ऐतिहासिक भत्तीइ जिणवराणं परमाए खीणपिज्जदोसाणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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