SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन्द्रिय ३७४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ इन्द्रियों की संख्या ये विषय-भोग आत्मा को बाह्यमुखी बना देते हैं। प्रत्येक इन्द्रिय जैन दृष्टि में इन्द्रियाँ पाँच मानी जाती हैं- (१) श्रोत्र, (२) अपने-अपने विषयों की ओर आकर्षित होती है और इस प्रकार आत्मा चक्षु, (३) घाण, (४) रसना और (५) स्पर्शन्। सांख्य विचारणा में का आन्तरिक समत्व भंग हो जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया इन्द्रियों की संख्या ११ मानी गई है-५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ है कि “साधक शब्द, रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श इन पाँचों प्रकार और १ मन। जैन विचारणा में ५ ज्ञानेन्द्रियाँ तो उसी रूप में मानी के कामगुणों (इन्द्रिय-विषयों) को सदा के लिए छोड़ दे,२२ क्योंकि गई है किन्तु मन को नोइन्द्रिय (Quasi sense-organ) कहा गया है। ये इन्द्रियों के विषय आत्मा में विकार उत्पन्न करते हैं। पाँच कर्मेन्द्रियों की तुलना उनकी १० बल की धारणा में वाक्बल, इन्द्रियाँ अपने विषयों से किस प्रकार सम्बन्ध स्थापित करती शरीरबल एवं श्वासोच्छ्वास बल से की जा सकती है। १९ बौद्ध हैं और आत्मा को उन विषयों से कैसे प्रभावित करती हैं, इसकी विसुद्धिमग्गो में इन्द्रियों की संख्या २२ मानी गई है।२० बौद्ध विचारणा विस्तृत व्याख्या प्रज्ञापनासूत्र और अन्य जैन ग्रन्थों में मिलती है। विस्तार में उक्त पाँच इन्द्रियों के अतिरिक्त पुरुषत्व, स्त्रीत्व, सुख-दुःख तथा भय से हम इस विवेचना में जाना नहीं चाहते हैं। हमारे लिए इतना शुभ एवं अशुभ आदि को भी इन्द्रिय माना गया है। जैन दर्शन में ही जान लेना पर्याप्त है कि जिस प्रकार द्रव्यमन भावमन को प्रभावित इन्द्रियाँ दो प्रकार की होती हैं- (१) द्रव्येन्द्रिय (२) भावेन्द्रिय। इन्द्रियों करता है और भावमन से आत्मा प्रभावित होती है, उसी प्रकार द्रव्येन्द्रिय की आंगिक संरचना (Structural aspect) द्रव्येन्द्रिय कहलाती हैं और (Structural aspect of sense organ) का विषय से सम्पर्क होता है आन्तरिक क्रियाशक्ति (Functional aspect) भावेन्द्रिय कहलाती है। और वह भावेन्द्रिय (Functional and Psychic aspect of sence organ) इनमें से प्रत्येक के पुन: उप-विभाग किये गये हैं, जिन्हें संक्षेप में को प्रभावित करती है और भावेन्द्रिय (आत्मा की शक्ति होने के कारण) निम्न सारिणी से समझा जा सकता है : से आत्मा प्रभावित होती है। नैतिक चेतना की दृष्टि से मन और इन्द्रियों के महत्त्व तथा स्वरूप के सम्बन्ध में यथेष्ट रूप से विचार कर लेने के पश्चात् यह जान लेना उचित होगा कि मन और इन्द्रियों का ऐसा द्रव्येन्द्रिय भावेन्द्रिय कौन सा महत्त्वपूर्ण कार्य है, जिसके कारण उन्हें नैतिक चेतना में इतना स्थान दिया जाता है। उपकरण (इन्द्रिय रक्षक अङ्ग) निवृत्ति (इन्द्रिय अङ्ग) वासना प्राणीय व्यवहार का प्रेरक तत्त्व बहिरङ्ग अंतरङ्ग बहिरङ्ग अंतरङ्ग मन और इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सम्पर्क होता है। इस सम्पर्क से कामना उत्पन्न होती है। यही कामना या इच्छा नैतिकता की परिसीमा लब्धि (शक्ति) उपयोग (चेतना) में आने वाले व्यवहार का आधारभूत प्रेरक तत्त्व है। सभी भारतीय आचार दर्शन यह स्वीकार करते हैं कि वासना, कामना या इच्छा से इन्द्रियों के व्यापार या विषय प्रसूत समस्त व्यवहार ही नैतिक विवेचना का विषय है। स्मरण रखना (१) श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है। शब्द तीन प्रकार का माना चाहिए कि भारतीय दर्शनों में वासना, कामना, कामगुण, इच्छा, आशा, गया है- जीव का शब्द, अजीव का शब्द और मिश्र शब्द। कुछ लोभ, तृष्णा, आसक्ति आदि शब्द लगभग समानार्थक रूप में प्रयुक्त विचारक सात प्रकार के शब्द मानते हैं। (२) चक्षुरिन्द्रिय का विषय हुए हैं, जिनका सामान्य अर्थ मन और इन्द्रियों की अपने विषयों की रंग-रूप है। रंग काला, नीला, पीला, लाल और श्वेत, पाँच प्रकार “चाह" से है। बन्धन का कारण इन्द्रियों का उनके विषयों से होने के हैं। शेष रंग इन्हीं के सम्मिश्रण के परिणाम हैं। (३) घ्राणेन्द्रिय वाले सम्पर्क या सहज शारीरिक क्रियाएँ नहीं हैं, वरन् वासना है। का विषय गन्ध है। गन्ध दो प्रकार की होती है- सुगन्ध और दुर्गन्ध। नियमसार में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सामान्य व्यक्ति का (४) रसना का विषय रसास्वादन है। रस पाँच प्रकार के होते हैं- उठना-बैठना, चलना-फिरना, देखना-जानना आदि क्रियाएँ वासना से कटु, अम्ल, लवण, तिक्त और कषाय। (५) स्पर्शेन्द्रिय का विषय युक्त होने के कारण बन्धन का कारण है जबकि केवली (सर्वज्ञ या स्पर्शानुभूति है। स्पर्श आठ प्रकार के होते हैं- उष्ण, शीत, रूक्ष, जीवनमुक्त) की ये सभी क्रियाएँ वासना या इच्छारहित होने के कारण चिकना, हल्का, भारी, कर्कश और कोमल। इस प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय के। बन्धन का कारण नहीं होती। इच्छा या संकल्प (परिणाम) पूर्वक किए ३, चक्षुरिन्द्रिय के ५, घाणेन्द्रिय के २, रसनेन्द्रिय के ५ और स्पर्शेन्द्रिय हुए वचन आदि कार्य ही बन्धन के कारण होते हैं। इच्छारहित कार्य के ८, कुल मिलाकर पाँचों इन्द्रियों के २३ विषय होते हैं। बन्धन के कारण नहीं होते।२३ जैन विचारणा में सामान्य रूप से यह माना गया है कि पाँचों इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि जैन आचार दर्शन में वासनात्मक इन्द्रियों के द्वारा जीव उपरोक्त विषयों का सेवन करता है। गीता में तथा ऐच्छिक व्यवहार ही नैतिक निर्णय का प्रमुख आधार है। जैन कहा गया है यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्ष, त्वचा, रसना, घ्राण और मन । नैतिक विवेचना की दृष्टि से वासना (इच्छा) को ही समग्र जीवन के के आश्रय से ही विषयों का सेवन करता है।२१ व्यवहार क्षेत्र का चालक तत्त्व कहा जा सकता है। पाश्चात्य आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy