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________________ मन-शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण ३७३ ही असम्भव होगी। वेदान्तिक अद्वैतवाद, बौद्ध विज्ञानवाद एवं शून्यवाद अद्वैतवादी आचार्य शंकर ने किया। यदि दूसरी ओर चेतन की स्वतन्त्र के दर्शनों में बन्धन का कारण अन्य तत्त्व को नहीं माना जाता। अतः सत्ता का निषेध कर मात्र जड़तत्व की सत्ता को ही माना जाये तो वहां सम्बन्ध की समस्या ही नहीं आती। सांख्य दर्शन में आत्मा को भौतिकवाद में आना होगा, जिसमें नैतिक जीवन के लिए कोई स्थान कूटस्थ मानने के कारण वहां भी पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध की शेष नहीं रहेगा। डॉ० राधाकृष्णन् लिखते हैं- "जैन दार्शनिकों ने कोई समस्या नहीं रहती। इसलिए वे मन को एकांत जड़ अथवा चेतन मन और शरीर का द्वैत स्वीकार किया, इसलिए वे समानान्तरवाद मानकर अपना काम चला लेते हैं। लेकिन जड़ और चेतन के मध्य को भी उसकी समस्त सीमाओं सहित स्वीकार कर लेते हैं। वे चैतसिक सम्बन्ध मानने के कारण जैन दर्शन के लिए मन को उभयरूप मानना और अचैतसिक तथ्यों में एक पूर्व संस्थापित सामजस्य (Preआवश्यक है। जैन विचारणा में मन अपने उभयात्मक स्वरूप के कारण established harmony) स्वीकार करते हैं।"१७ लेकिन जैन विचारणा ही जड़ कर्मवर्गणा के पुद्गल और चेतन आत्म-तत्त्व के मध्य योजक द्रव्यमन और भावमन के मध्य केवल समानान्तरवाद या पूर्व संस्थापित कड़ी बन गया है। मन की शक्ति चेतना में है और उसका कार्य-क्षेत्र सामंजस्य ही नहीं मानती है, अपितु व्यावहारिक दृष्टि से तो जैन विचारक भौतिक जगत् है। जड़ पक्ष की ओर से वह भौतिक पदार्थों से प्रभावित उनमें वास्तविक सम्बन्ध भी मानते हैं। समानान्तरवाद या पूर्व संस्थापित होता है और अपने चेतन-पक्ष की ओर से आत्मा को प्रभावित करता सामंजस्य तो केवल पारमार्थिक या द्रव्यार्थिक दृष्टि से स्वीकार किया है। इस प्रकार जैन दार्शनिक मन के द्वारा आत्मतत्त्व और जड़तत्त्व गया है। इस प्रकार जैन दार्शनिक तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में जड़ और चेतन के मध्य अपरोक्ष सम्बन्ध बना देते हैं तथा इस सम्बन्ध के आधार में नितान्त भित्रता मानते हुए भी अनुभव के स्तर पर या मनोवैज्ञानिक पर ही अपनी बन्धन की धारणा को सिद्ध करते हैं। मन, जड़ जगत् स्तर पर उनमें वास्तविक सम्बन्ध को स्वीकार कर लेते हैं। डॉ० कलघटगी और चेतन जगत् के मध्य अवस्थित एक ऐसा माध्यम है, जो दोनों लिखते हैं कि “जैन चिन्तकों ने मानसिक भावों को जड़ कर्मों से स्वतन्त्र सत्ताओं में सम्बन्ध बनाये रखता है, जब तक यह माध्यम प्रभावित होने के सन्दर्भ में एक परिष्कारित समानान्तरवाद प्रस्तुत किया रहता है तभी तक जड़ एवं चेतन जगत् में पारस्परिक प्रभावकता रहती है- उनका समानान्तरवाद व्यक्ति के मन और शरीर के सम्बन्ध में है, जिसके कारण बन्धन का क्रम चलता रहता है। निर्वाण की प्राप्ति एक प्रकार का मनोभौतिक समानान्तरवाद है- यद्यपि वे मानसिक के लिए पहले मन के इन उभय पक्षों को अलग-अलग करना होता और शारीरिक तथ्यों के मध्य होने वाली पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया है। इनके अलग-अलग होने पर मन की प्रभावक शक्ति क्षीण होने की धारणा को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करते हैं- जैन दृष्टिकोण लगती है और अन्त में मन का ही विलय होकर निर्वाण की उपलब्धि जड़ और चेतन के मध्य रहे हुए तात्त्विक विरोध के समन्वय का एक हो जाती है। निर्वाण दशा में इस उभय स्वरूप मन का ही अभाव प्रयास है, जो वैयक्तिक मन एवं शरीर के मध्य पारस्परिक होने से बन्धन की सम्भावना नहीं रहती। क्रिया-प्रतिक्रिया की धारणा की संस्थापना करता हैं। १८ उभयात्मक मन के माध्यम से जड़ और चेतन में पारस्परिक इस प्रकार हमने यह देखा कि जैन विचारणा में बाह्य प्रभावकता (Interaction) मान लेने मात्र से समस्या का पूर्ण समाधान भौतिक जगत् से सम्बन्धित मन का द्रव्यात्मक पक्ष किस प्रकार अपने नहीं होता। प्रश्न यह है कि बाह्य भौतिक घटनायें एवं क्रियायें आत्मतत्त्व भावात्मक पक्ष को प्रभावित करता है और जीवात्मा को बन्धन में को कैसे प्रभावित करती हैं, जबकि दोनों स्वतन्त्र हैं यदि उभयरूप डालता है। लेकिन मन जिन साधनों के द्वारा बाह्य जगत् से सम्बन्ध मन को उनका योजक तत्त्व मान भी लिया जाय तो इससे समस्या बनाता है वे तो इन्द्रियाँ हैं, मन की विषय-सामग्री तो इन्द्रियों के का निराकरण नहीं होता। यह तो समस्या को टालना मात्र है। जो माध्यम से आती है। बाह्य जगत् से मन का सीधा सम्बन्ध नहीं होता सम्बन्ध की समस्या भौतिक जगत् और आत्मतत्त्व के मध्य थी, उसे है वरन् वह इन्द्रियों के माध्यम से जागतिक विषयों से अपना केवल द्रव्यमन और भावमन के नाम से मनोजगत् में स्थानान्तरित सम्बन्ध बनाता है। मन जिस पर कार्य करता है वह सारी सामग्री तो कर दिया गया है। द्रव्यमन और भावमन कैसे एक-दूसरे को प्रभावित इन्द्रिय-संवेदन से प्राप्त होती है। अत: मन के कार्य के सम्बन्ध में करते हैं यह समस्या अभी बनी हुई है। चाहे यह सम्बन्ध की समस्या विचार करने से पहले हमें इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी थोड़ा विचार भौतिक और आध्यात्मिक स्तर पर हो, चाहे जड़-कर्म-परमाणु और कर लेना होगा। चेतन आत्मा के मध्य हो अथवा मन के भौतिक और अभौतिक स्तरों पर हो, समस्या अवश्य बनी रहती है। उसके निराकरण के दो ही मन के साधन-इन्द्रियाँ मार्ग हैं- या तो भौतिक और आध्यात्मिक संज्ञाओं में से किसी एक इन्द्रिय शब्द के अर्थ की विशद विवेचना न करते हुए यहाँ हम के अस्तित्त्व का निषेध कर दिया जाए अथवा उनमें एक प्रकार का केवल यही कहें कि “जिन-जिन कारणों की सहायता से जीवात्मा विषयों समानान्तरवाद मान लिया जाए। जैन दार्शनिकों ने पहले विकल्प में की ओर अभिमुख होता है अथवा विषयों के उपभोग में समर्थ होता यह दोष पाया कि यदि केवल चेतनतत्त्व की सत्ता मानी जाए तो समस्त है वे इन्द्रियाँ हैं।" इस अर्थ को लेकर गीता या जैन आगमों में कहीं भौतिक जगत् को मिथ्या कहकर अनुभूति के तथ्यों को छुटकरा देना कोई विवाद नहीं पाया जाता। यद्यपि कुछ विचारकों की दृष्टि में इन्द्रियाँ होगा, जैसा कि विज्ञानवादी एवं शून्यवादी बौद्ध दार्शनिकों तथा "मन" का साधन या "कारण' मानी जाती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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